शब्दों के जंगल उग आते
मात्र मौन है जिसकी भाषा
शब्दों से क्या उसे है काम,
अनहद नाद बहे जो निशदिन
सहज दिलाए परम विश्राम !
कुदरत जड़ अनंत चेतन है
मेल कहाँ से हो सकता है,
तीजे हम हैं बने साक्षी
कौन हमें फिर ठग सकता है ?
शब्दों के जंगल उग आते
प्रीत, ज्ञान जिसमें खो जाते,
सुर निजता का भुला ही दिया
माया का इक महल बनाते !
मन शशि सम घटता बढ़ता है
निज प्रकाश कहाँ उसके पास,
जिसके बिना न सत्ता उसकी
उस चेतन पर नहीं विश्वास !
थम जाये तन ठहरा हो मन
अहंकार को मिले विश्राम,
मेधा विस्मित थमी ठगी सी
झलक दिखायेगा तभी राम !
वही झलक पा मीरा नाची
चैतन्य को वो ही लुभाए,
वही हमारा असली घर है
कबिरा उस की बात सुनाये !
बहुत बहुत आभार यशोदा जी !
जवाब देंहटाएंवाह!अद्भुत!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी
हटाएंबहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
हटाएंउम्मदा
जवाब देंहटाएंमौन सार है
जवाब देंहटाएंगहन सत्य का ।
सार-सार को गहि रहे ।
सुंदर ।
वाह बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां
जवाब देंहटाएंउर्मिला जी, नूपुर जी व भारती जी आप सभी का स्वागत व हृदय से आभार!
जवाब देंहटाएंआज तो आपकी रचना आपके ही ब्लॉग के टाइटिल से मेल खा रही है''मन पाये विश्रश्राम जहां'' = मात्र मौन है जिसकी भाषा
जवाब देंहटाएंशब्दों से क्या उसे है काम,
अनहद नाद बहे जो निशदिन
सहज दिलाए परम विश्राम !...बहुत सुंदर
स्वागत व आभार अलकनंदा जी !
जवाब देंहटाएंथम जाये तन ठहरा हो मन
जवाब देंहटाएंअहंकार को मिले विश्राम,
मेधा विस्मित थमी ठगी सी
झलक दिखायेगा तभी राम !
बहुत सही कहा आपने ...
बहुत ही बढ़िया....बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग पर आया ..बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंआपका आना अच्छा लगा, इसी तरह आते रहें!
हटाएंमात्र मौन है जिसकी भाषा
जवाब देंहटाएंशब्दों से क्या उसे है काम,
अनहद नाद बहे जो निशदिन
सहज दिलाए परम विश्राम !
..बहुत सुंदर भाव ।
प्रेरक रचना ।
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी!
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