मन माटी से जैसे कोई
ऊँचे पर्वत,
गहरी खाई
दोनों साथ-साथ
रहते हैं,
कल-कल नदिया
झर-झर झरने
दोनों संग-साथ
बहते हैं !
नीरव जंगल,
रौरव बादल
दोनों में ना
अनबन कोई,
शिव का तांडव,
लास्य पार्वती
दोनों में ही
प्रीत समोई !
गीत प्रीत के,
सहज जीत के
चलो आज मिल कर
गाते हैं,
नित्य रचे जाता नव संसृति
उस अनाम को जो
भाते हैं !
थिर अंतर में
शब्द किसी का
लहरों का वर्तुल
बन चहके,
मन माटी से जैसे
कोई
अंकुर फूट लता बन
महके !
भीतर-बाहर एक हुआ
सब
सन्नाटा आधार सभी
का,
मौन अबूझ शब्द
हैं सीमित
दोनों में आकार
उसी का !
बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सतीश जी !
हटाएंमिलने के क्षण में जाने क्यों,मनचाहे शब्द नहीं मिलते
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, आभार !
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