गुरुवार, अक्तूबर 4

खुद न जाने जागता मन


खुद न जाने जागता मन


स्वप्न रातों को बुने मन
नींद में कलियाँ चुने मन,
क्या छिपाए गर्भ में निज
खुद न जाने जागता मन !

कौन सा वह लोक जिसमें
कल्पना के नगर रचता,
कभी गहरी सी गुहा में
एक समाधि में ठहरता !

छोड़ देता जब सुलगना
इस-उसकी श्लाघा लेना,
खोल कर खिड़की के पाट
आसमा को लख बिलखना !

 एक अनगढ़ गीत भीतर
सुगबुगाता सा पनपता,
एक न जाना सा रस्ता
सदा कदमों को बुलाता !

राज कोई खुल न पाया
खोलने की फिकर छोड़ी,
कौन गाये नीलवन में ?
सुनो ! सरगम, तान, तोड़ी !


2 टिप्‍पणियां:

  1. एक अनगढ़ गीत भीतर
    सुगबुगाता सा पनपता,
    एक न जाना सा रस्ता
    सदा कदमों को बुलाता ...
    ये स्वर स्वयं ही तो नहीं पनपते ... माया का जाल रहता है जो दिखाई नहीं देता ... सच है राज खोलने की फिकर क्यों ... आनद क्यों नही ... चिरानंद ...

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  2. स्वागत व आभार दिगम्बर जी ! कविता के मर्म तक पहुंच कर सार्थक टिप्पणी..

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