निज उजास का करने वितरण
चिन्मय बसा
रहे मेधा में
योग्य वरण
के एक ईश है,
जग यह मोहक
रूप धर रहा
सुंदर उससे
कौन शीश है !
उसे जानना
पाना उसको
हो शुभ जीवन
का लक्ष्य यही,
जिससे परम
प्रपंच घटा है
महिमा सदा
अनंत अगम की !
वही श्रेष्ठ
विभु सुख का सागर
नीर, वायु,
पावक का दायक,
जड़ यह पाँच
भूतों की सृष्टि
चेतन वही
ज्ञान संवाहक !
उस चेतन का
ध्यान धरें हम
उसके हित ही
उसे भजें हम,
जग ही माँगा
यदि उससे भी
व्यर्थ
रहेगा यह सारा श्रम !
उसके सिवा न
कोई दूजा
इन श्वासों
का वही प्रदाता,
प्रज्ञा, मेधा, धी उससे है
ज्ञान
स्वरूप वही है ज्ञाता !
वही चेतना
वही बोध है
उसका ही हो
मन में चिंतन,
आनंद का
स्रोत अजस्र है
स्फुरण सहज
वही, वही स्पंदन !
तेरी महिमा
तू ही जाने
मेधा में
मणि जैसा दमके,
यही कामना
है अंतर की
अपनी गरिमा
में नित चमके !
सभी कारणों
का वह कारण
खुद रहता है
सदा अकारण,
सुंदर
दुनिया एक रचायी
निज उजास का
करने वितरण !
अहंकार कर
जिस क्षण भूला
टूट गई वह
डोर प्रीत की,
मन विवेक का
थामे दामन
दुविधा छूटे
हार-जीत की !
अविनाशी
कण-कण में देखे
शाश्वत हर
घटना के पीछे,
हर अंतर में
छुपा पुरातन
मौन ध्यान
में सहज निहारे !
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