देखे वह अव्यक्त छिपा जो
कंकर-कंकर में है शंकर
अणु-अणु में बसते महाविष्णु,
ब्रह्म व्याप्त ब्राह्मी सृष्टि में
क्यों भयभीत कर रहा विषाणु !
वास यहाँ जर्रे-जर्रे में
अलख निरंजन वासुदेव का,
इस धरती पर जटा बिखेरे
गंगा धारी महादेव का !
मन में हो विश्वास घना जब
देखे वह अव्यक्त छिपा जो,
अपरा-परा शक्तियां उसकी
कहा स्पष्ट कान्हा ने जिसको !
जिसने रचा खेल यह सारा
कैसे वह अनभिज्ञ रहेगा,
उसके ही हम बनें खिलाड़ी
जग यह सारा खेल लगेगा !
जिसने रचा खेल यह सारा
जवाब देंहटाएंकैसे वह अनभिज्ञ रहेगा,
उसके ही हम बनें खिलाड़ी
जग यह सारा खेल लगेगा !
..बहुत ही सटीक और सुंदर सृजन..।आपको मेरा अभिवादन अनिता दी..।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 23 नवंबर नवंबर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 23 नवंबर 2020 को 'इन दिनों ज़रूरी है दूसरों के काम आना' (चर्चा अंक-3894) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबात तो आपकी सही है। बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंजिसने रचा खेल यह सारा
जवाब देंहटाएंकैसे वह अनभिज्ञ रहेगा,
उसके ही हम बनें खिलाड़ी
जग यह सारा खेल लगेगा ! सुन्दर रचना.
स्वागत व आभार !
हटाएंअलख निरंजन का गुंजन ....
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