ढाई आखर प्रेम के
‘प’ से परस स्नेह भरा
आश्वस्त करता हुआ
भीतर की सारी शुभता को
प्रियतम में भरता हुआ
परख ले जो अंतर की अकुलाहट
पनपा दे अनायास ही मुस्कुराहट !
‘र’ से रमा हो कण-कण में अस्तित्व के
रमणीय हो उसके अपनेपन की आभा !
‘ए’ से एक की ही याद दिलाता
सारा द्वैत इक पल में मिट जाता !
‘म’ से माँ की तरह समेट ले विशाल हृदय में
मधुर बन पूर्ण करे हर अभाव प्रियस्पद का !
ऐसा निश्चछल प्रेम ही हर मन की आस है
जिसकी स्मृति ही भर देती जीवन में उजास है !
‘प’ से जब पाना ही होता है लक्ष्य
‘र’ बन जाता है रौरव
एषणायें जगाता
ममता की बेड़ियों में जकड़ा
प्रेम मुक्त नहीं करता
पीड़ा के फूल ही अंचल में भरता !
गुरुवार, नवंबर 19
ढाई आखर प्रेम के
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‘म’ से माँ की तरह समेट ले विशाल हृदय में
जवाब देंहटाएंमधुर बन पूर्ण करे हर अभाव प्रियस्पद का !
ऐसा निश्चछल प्रेम ही हर मन की आस है
जिसकी स्मृति ही भर देती जीवन में उजास है !..।प्रेम का बहुत ही सारगर्भित वर्णन किया है अपने..।सुंदर कृति..।
स्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना...🙏
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और भावप्रवण।
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