धारा इक विश्वास की बहे
बुना हुआ है दो धागों से
ताना-बाना इस जीवन का,
इक आनंद-प्रेम का वाहक
दूजा, जंगल है यादों का !
दोनों हैं दिन-रात की तरह
पुष्प गुच्छ हों गुँथे हुए ज्यों,
किसके हो लें, किससे पोषित
यह चुनाव करना है दिल को !
तज दे सारे दुख, भय, विभ्रम
मुक्त गगन में विहरे खग सा,
मन को यह निर्णय करना है
जंजीरों से बंधा रहे या !
जहाँ न कोई दूजा, केवल
धारा इक विश्वास की बहे,
सुरति निरंतर वहीं हृदय की
कल-कल स्वर में सहज ही कहे !
वही ज्ञेय है, लक्ष्य भी वही
जहाँ हो रहा नित्य ही मिलन,
प्रीति-सुख से मिले प्रज्ञा जब
शिव-गिरिजा का होता नर्तन !
जहाँ न कोई दूजा, केवल
जवाब देंहटाएंधारा इक विश्वास की बहे,
आनंद और प्रेम में विश्वास की नींव मनुष्य को मनुष्यता तक ले जाती है।
कितना सुंदर और सटीक कहा है आपने जिज्ञासा जी!
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना मंगलवार १२ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंवाह!!! अनीता जी ,बहुत खूब.....दो धागों से बुना हुआ..एक आनंद का धागा और दूसरा यादों का जंगल .... व!!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी, अक्सर हम अतीत के कारण वर्तमान को देख नहीं पाते !
हटाएंबहुत खूब ... निर्णय तो मन के ही होते हैं सभी ... पर क्या , कम और कैसे येअही विषय है चिंतन का ... सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंजहाँ न कोई दूजा, केवल
जवाब देंहटाएंधारा इक विश्वास की बहे,
सुरति निरंतर वहीं हृदय की
कल-कल स्वर में सहज ही कहे !
वाह!!! बहुत सुंदर।🙏🙏
स्वागत व आभार !
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