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सोमवार, मार्च 25

​​जीवन बँटता ही जाता है

​​जीवन बँटता ही जाता है 


झोली भर-भर कर ले जाओ 

चुकता कब उसका भंडारा,

  चमत्कार यह देख न पाये

जग नूतन चाह जगाता है !


जीवन बँटता ही जाता है !


कण-कण में विश्वास भरा है 

अणु-अणु में गति भर दी किसने, 

सुमधुर, सुकोम, सरस स्वर में 

कोई भीतर से गाता है !


जीवन बँटता ही जाता है !


चट्टानों के भीतर जीवन 

अग्नि गुफाओं में भी सर्जन 

जल, अनिल, अनल, नभ को धारे 

यह धरती माँ सा भाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


स्थूल, सूक्ष्म, कारण इन तीनों 

देहों के पार वही सच है, 

मन उस समता में जागे नित

हर द्वन्द्व जहां गिर जाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


हर रूप वही आकार वही 

भावना, विचार, हर ध्वनि  वही, 

पादप, पशु, पंछी, बादल में 

वह पावन ही दिख जाता है !


जीवन बंटता ही जाता है !


है शिव से न शक्ति विलग कभी 

मन-प्राण समोहित से रहते, 

श्वासों का जो आधार बना 

वह गीतों में गुंजाता है !


सोमवार, सितंबर 11

धारा इक विश्वास की बहे

धारा इक विश्वास की बहे

बुना हुआ है दो धागों से  

ताना-बाना इस जीवन का, 

इक आनंद-प्रेम का वाहक 

दूजा, जंगल है यादों का !


दोनों हैं दिन-रात की तरह 

 पुष्प गुच्छ हों गुँथे हुए ज्यों, 

किसके हो लें, किससे पोषित 

यह चुनाव करना है दिल को !


तज दे सारे दुख, भय, विभ्रम 

मुक्त गगन में विहरे खग सा, 

मन को यह निर्णय करना है 

जंजीरों से बंधा रहे या ! 


जहाँ न कोई दूजा, केवल 

धारा इक विश्वास की बहे,

सुरति निरंतर वहीं हृदय की 

कल-कल स्वर में सहज ही कहे !


वही ज्ञेय है, लक्ष्य भी वही 

जहाँ हो रहा नित्य ही मिलन,

प्रीति-सुख से मिले प्रज्ञा जब 

शिव-गिरिजा का होता नर्तन !


शुक्रवार, फ़रवरी 10

चुनाव

चुनाव 


शब्दों का एक जखीरा है वहाँ

हाँ , देखा है मैंने 

 ध्वनि एक,  जिससे उपजे शब्द अनेक 

एक  शै के भिन्न-भिन्न नाम 

उनमें से कुछ चुन लिए मैंने 

प्रेम, विश्वास और हंसी 

करते हुए शब्द ब्रह्म को प्रणाम 

शायद अनजाने में ही 

तुमने चुने होंगे 

युद्ध, सन्देह और पीड़ा 

तभी पनपी हैं दुःख की बेलें 

तुम्हारे आंगन में 

और यहाँ सुरभित फूलों की लताएँ !

सुवास से भरा है प्रांगण  

आँगन ही नहीं 

गली तक फैली है ख़ुशबू 

ऐसे ही कुछ देश चुन लेते हैं 

अपने लिए विकास और विश्वास 

और कुछ जाने किस भय में 

जिए जाते हैं खोकर हर आस ! 


रविवार, जनवरी 29

गुंजार

 गुंजार 


तू भेज रहा है प्रेम पाती 

हर क्षण  मेरे प्रभु !

हम पढ़ते ही नहीं 

क्योंकि संसार की

उलझनों में खोए हैं 

तू जगा रहा है निज गुंजार से 

और हम न जाने

किन अंधेरों में सोए हैं 

एक क्षण के लिए

तुझसे नयन मिलते हैं तो 

हज़ार फूलों की

डालियाँ झर जाती हैं 

तेरी याद में 

पवन अपने संग 

उन अदृश्य फूलों का

पराग ले आती है 

शुक्रिया तेरे उस स्पर्श का 

जो भर जाता है

मन में पुनः विश्वास 

थिर हो जाती है

आती-जाती हर श्वास ! 


गुरुवार, सितंबर 30

वही

वही 


एक अनंत विश्वास 

छा  जाता है जब 

जो सदा से वहीं था 

सचेत हो जाता है मन उसके प्रति 

तो चुप लगा लेता है स्वतः ही 

वह अखंड मौन ही समेटे हुए है अनादि काल से 

हर ध्वनि हर शब्द को 

सारे सवाल और हर जवाब भी वहीं है 

उसमें डूबा जा सकता है 

मगन हुआ जा सकता भी 

पर कहने में नहीं आता 

वह कभी स्वयं को नहीं जताता 

क्योंकि वहाँ दूजा कोई नहीं है 

प्रेम की उस गली में 

केवल एक वही रहता है 

जिससे यह सारा अस्तित्त्व 

बूँद बूँद बन कर बहता है !




सोमवार, जून 7

भाव-अभाव

भाव-अभाव

अभाव का काँटा जब तक चुभता रहेगा उर में 

भाव की धारा क्यों कर बहेगी 

जो ‘नहीं’ है ‘नहीं’ हो रहा है 

उस पर ही नज़र टिकी रही तो 

भय की कारा से छुट्टी क्यों कर मिलेगी 

बाहर ही बाहर यदि मन को लगाया 

तो पीड़ा और संताप दिखेगा 

अंतर गुहा में पल भर बिठाया 

तो श्रद्धा का फूल स्वयं खिलेगा 

खंडित विश्वास, टूटती आस्था की नींव पर 

नहीं टिकती भक्ति की इमारत 

पूर्ण की चाह है तो पूर्ण हो भरोसा 

तभी जीवन में सुरभि भरेगी !


मंगलवार, जून 1

ऐसे ही घट-घट में नटवर

ऐसे ही घट-घट में नटवर

अग्नि काष्ठ में, नीर अनिल में 

प्रस्तर में मूरत इक सुंदर, 

सुरभि पुष्प में रंग गगन में 

ऐसे ही घट-घट में नटवर !


नर्तन कहाँ पृथक नर्तक से 

हरीतिमा नंदन कानन से, 

बसी चाँदनी राकापति में 

ईश्वरत्व भी छुपा जगत में !


दीप की लौ में जो बसा है 

वह प्रकाश चहुँ ओर बिखरता, 

प्रेम, शांति, आनंद की ज्योति 

उस से पाकर जगत सँवरता !


अनुभूति उसी मनभावन की 

अंतर में विश्वास जगाती, 

है कोई अपनों से अपना 

शुभ स्मृति पल-पल राह दिखाती !


जगत की सत्ता जगतपति से 

जिस दिन भीतर राज खुलेगा, 

एक स्वप्न सा है प्रपंच यह 

बरबस ही उर यही कहेगा !

 

शुक्रवार, मई 28

भीतर रस का स्रोत बहेगा

भीतर रस का स्रोत बहेगा 


छा जाएं जब भी बाधाएं 

श्रद्धा का इक दीप जला लें, 

दुर्गम पथ भी सरल बनेगा

जिसके कोमल उजियाले में !


एक ज्योति विश्वास की अटल  

अंतर्मन में रहे प्रज्ज्वलित, 

जीवन पथ को उजियारा कर 

कटे यात्रा होकर प्रमुदित !


कोई साथ सदा है अपने 

भाव यदि यही प्रबल रहेगा, 

दुख-पीड़ा के गहन क्षणों में 

भीतर रस का स्रोत बहेगा !


श्रद्धालु ही स्वयं को जाने 

कैसे उससे डोर बँधी है,

भटक रहा था अंधकार में 

अब भीतर रोशनी घटी है !


जिसने भी यह सृष्टि रचाई 

दिल का इससे क्या है नाता,

एक भरोसा, एक आसरा

जीवन में अद्भुत बल भरता !

 

रविवार, मई 2

मन निर्मल इक दर्पण हो

मन निर्मल इक दर्पण हो


लंबी गहरी श्वास भरें 

वायरस का विनाश करें, 

प्राणायाम, योग अपना 

अंतर में विश्वास धरें !


उष्ण नीर का सेवन हो 

उच्च सदा ही चिंतन हो, 

परम सत्य तक पहुँच सके  

मन निर्मल इक दर्पण हो !


खिड़की घर की रहे खुली

अधरों पर स्मित हटे नहीं, 

विषाणु से कहीं बड़ा है

साहस भीतर डटें वहीं !


नियमित हो जगना-सोना

स्वच्छ रहे घर, हर कोना, 

स्वादिष्ट, सुपाच्य आहार    

मुक्त हवा आना-जाना !


नयनों में पले विश्वास 

मन को भी न करें उदास, 

पवन, धूप, आकाश, नीर  

परम शक्ति का ही निवास !


मुक्ति का अहसास मन में 

चाहे हो पीड़ा तन में,

याद रहे पहले कितने  

फूल खिले इस जीवन में !

 

गुरुवार, अप्रैल 15

यह विश्वास रहे अंतर में

यह विश्वास रहे अंतर में


शायद एक परीक्षा है यह

जो भी होगा लायक इसके, 

उसको ही तो देनी होगी 

शायद एक समीक्षा है यह ! 


जीवन के सुख-दुखका पलड़ा 

सदा डोलता थिर कब रहता, 

क्या समता को प्राप्त हुआ है

शेष रही अपेक्षा है यह !


तन दुर्बल हो मन भी अस्थिर 

किन्तु साक्षी भीतर बैठा, 

शायद यही पूछने आया 

क्या उसकी उपेक्षा है यह !


जिसने खुद को योग्य बनाया 

प्रकृति ठोंक-पीट कर जांचे,  

इसी बहाने और भी शक्ति

भीतर भरे सदिच्छा है यह !


यह विश्वास रहे अंतर में 

उसका हाथ सदा है सिर पर, 

पल-पल की है खबर हमारी 

शायद उसकी चिंता है यह ! 


हुए सफल निकल आएंगे 

हृदय को दृढ़तर पाएंगे, 

चाहे कड़ी परीक्षा हो यह 

कृपालु की दीक्षा है यह !


 

सोमवार, मई 27

फिर फिर भीतर दीप जलाना होगा



फिर फिर भीतर दीप जलाना होगा


नव बसंत का स्वागत करने
जग को अपनेपन से भरने
उस अनंत के रंग समेटे
हर दर बन्दनवार सजाना होगा !

सृष्टि सुनाती मौन गीत जो
कण-कण में छुपा संगीत जो
आशा के स्वर मिला सहज ही
प्रतिपल नूतन राग सुनाना होगा !

अम्बर से रस धार बह रही
भीगी वसुधा वार सह रही
श्रम का स्वेद बहाकर हमको
नव अंकुर हर बार खिलाना होगा !

टूटे मत विश्वास सदय का
मुरझाये न स्वप्न हृदय का
गहराई में सभी जुड़े हैं
भाव यही हर बार जताना होगा !

शुक्रवार, अप्रैल 20

अनगाया गीत एक





अनगाया गीत एक 


हरेक के भीतर एक छुपी है अनकही कहानी
और छुपा है एक अनगाया गीत भी
एक निर्दोष, शीतल फुहार सी हँसी भी
कैद किसी गहरे गह्वर में
बाहर आना जो चाहती
आसमान को ढक ले
एक ऐसा विश्वास भी छुपा है
और... प्रेम का तो एक समुन्दर है तरंगित
किन्तु हरेक व्यस्त है कुछ न कुछ करने में
अथवा तो कुछ न कुछ बटोरने में..
कहानियाँ और गीत सबके हिस्से में नहीं आते
हँसना भी भला कितनों के लिए जरूरी है
प्रेम और विश्वास की भली कही
प्रेम पर भी किसी का विश्वास नहीं रहा अब तो
तो कौन खोजेगा उसे
जो भीतर छिपा है एक खजाने सा अनमोल
पर जिसका नहीं है कइयों की नजरों में कोई मोल !