गीत यह अनमोल
मीरा ने गाया था कभी
गीत यह अनमोल
लीन्हा री मैंने कान्हा.. बिन मोल !
कोई कृत्य जहाँ नहीं पहुँचता
न कोई वाणी
कोई पदार्थ तो क्या ही पहुँचेगा
उस लोक में
है जहाँ का वह वासी
आज भी वह मिल रहा है अमोल !
क्यों उस निराकार को आकार दे
नयन मुंद जाते हैं
उस निरंजन को हम
हर रंज में आवाज देते हैं
वह जो है सदा हर जगह
खो गया मानकर
उसे पुकारते हैं !
जब तन अडोल हो और मन शून्य
तब जो भीतर सागर सा गहरा
और अम्बर सा विशाल
कुछ भास आता है
उसके पार ही वह प्रतीक्षारत है
कुछ करके नहीं
कुछ न करके ही, यानि बिन मोल
उसे पाया जाता है
वहाँ हमारा होना उसके होने में
समा जाता है !