इच्छाएँ
इच्छाएँ पत्तों की तरह उगती हैं
मन के पेड़ पर
कुछ झड़ जाती हैं आरम्भ में ही
कुछ बनी रहती हैं देर तक
कभी समाप्त नहीं होतीं
यह एक सदानीरा नदी सी
कल-कल करतीं शोर मचातीं
जिसमें तरंगें उठती गिरती हैं निरंतर
पत्तों को मूल का ज्ञान नहीं हो पाता
जिनसे वे पोषित हैं
न तरंगों को हिमशिखरों का
अंततः मूल भी पोषित होता है धरा से
और हिमशिखर जल से
पंच भूतों के पार क्या गया है कोई
भूत भावन है जो शिव सोई
शिवोहम् मंज़िल है
हम रास्तों पर ही अटक रहे हैं
प्रकाश सम्मुख है
हम अंधेरों में ही भटक रहे हैं !