कौन जाने
कविता क्या है
उसका भविष्य क्या है
कौन उलझता है इन प्रश्नों में
जब की जीवन का ही पता नहीं
कौन रख गया हमें इक्कीसवीं सदी के
इस भयानक दौर में
कुछ भी तो स्पष्ट नहीं है...
जहरीला धुआँ कोयले की खदानों का
दूषित कर रहा है
निकल आता है कोई न कोई जिन
हर दूसरे दिन जाने कहाँ से...
इन जिनों के मालिक
कैसे सोते होंगे रात...
दुनिया जैसी भी है
काम चला ही लेती है
हर पीढ़ी जैसे-तैसे...
और विरासत में दे जाती है
कुछ और दर्द व पीडाएं
अपनी संतानों को...