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सोमवार, अगस्त 25

जीवन बीता ही जाता है

जीवन बीता ही जाता है


ज्वालामुखी दबे हैं भीतर 

काश ! हमें सावन मिल जाता, 

रिमझिम-रिमझिम बूँदों से फिर 

अंतर  का उपवन खिल जाता !


बाहर अंबर बरस रहा है 

भू हुलसे पादप हँसता है, 

किंतु गई पीर नहीं मन की 

जीवन बीता ही जाता है !


यूँ तो अंचल में हैं ख़ुशियाँ 

कोई कहीं अभाव नहीं है, 

लेकिन फिर भी उर के भीतर 

कान्हा वाला भाव नहीं है !


काव्यकला में ह्रदय न डूबे 

मोबाइल से नज़र न हटती, 

फ़ुरसत कहाँ घड़ी भर उसको 

हर द्वारे से दुनिया आती !


कैसे अंतर रस में भीगे 

कैसे सावन की रुत भाये, 

जीवन भी जब फिसला जाता 

मौत का ताँडव यही रचाये !


बुधवार, अगस्त 6

दुनिया तो बस इक दर्पण है

दुनिया तो बस इक दर्पण है


फूलों की सुवास बिखरायें 

या फिर तीखे बाण चलायें,

शब्द हमारे, हम ही सर्जक 

हमने ही तो वे उपजाए !


चेहरा भी व तन का हर कण 

रचना सदा हमारी अपनी, 

 अस्वस्थ हो तन या निरोगी 

ज़िम्मेदारी ख़ुद ही लेनी ! 


डर लगता है, गर्हित  दुनिया 

हम ही भीतर कहते आये,

अपने ही हाथों क़िस्मत में 

दुख के जंगल बोते आये !


कभी लोभवश, कभी द्वेषवश

कभी क्रोध के वश हो जाते, 

मन के इस सुंदर उपवन को 

पल भर में रौंद चले जाते !


कोई नहीं है शत्रु बाहर 

ख़ुद ही काफ़ी हैं इस ख़ातिर, 

दुनिया तो बस इक दर्पण है 

‘वही’ हो रहा इसमें ज़ाहिर !


सोमवार, जून 16

कैसे मन की गागर भरती


कैसे मन की गागर भरती


कितने पल ख़ाली बीते हैं 
अक्सर हम यूँ ही रीते हैं, 
भर सकते थे उर उस सुख से 
जिसकी ख़ातिर ही जीते हैं !

किंतु नज़रें सदा अभाव पर 
कैसे मन की गागर भरती, 
भय से छुपे रहे गह्वर  में 
रिमझिम जब धाराएँ झरती !

निज शक्ति पर डाले पहरे 
निज आनंद की खबर नहीं थी, 
पीठ दिखाकर ज्योति पुंज को 
अंधकार की बाँह गही थी !

जाने कैसा मोह व्याप्त है 
ख़ुद से ही मन दूर भागता, 
दुनिया भर की खोज-खबर ले 
पल भर भीतर नहीं झाँकता !

शनिवार, मई 3

बस ! अब और नहीं

बस ! अब और नहीं 

उलझ गई थी 

आज़ादी के वक्त 

समस्या वह सुलझाने वाली है 

एक मुल्क 

जो झूठ की बुनियाद पर 

खड़ा हुआ  

 चूलें उसकी हिलने वाली हैं 

छल से लिया बलूचिस्तान 

और आधा कश्मीर हथिया लिया 

कद्र नहीं की सिंध की कभी 

कर पंजाब के टुकड़े 

एक देश बना लिया 

दुनिया के नक़्शे पर नहीं रहेगा  

आतंकियों का अनाचार 

भारत अब एक दिन भी 

नहीं सहेगा 

दशकों से जिस बोझ को 

ढोती आ रही है दुनिया 

उस बोझ को उतार फेंकने का 

दिन क़रीब है 

जाग रहा जाने कितने 

जुल्म के सताये लोगों का

 नसीब है !


शुक्रवार, नवंबर 8

फूलों से नहीं दुआ-सलाम

फूलों से नहीं दुआ-सलाम

दुनिया दुख का दूसरा नाम 

कहते आये सुबह औ'शाम, 

देख न पाये उड़ते पंछी 

फूलों से नहीं दुआ-सलाम !


जान-जान कर कुछ कब आया

प्रेम लहर इक भिगो गयी उर, 

एक सफ़र पर सबको जाना 

मिटने से क्यों लगता है डर !


माना अभी-अभी आये हैं 

दूर अतीव  दूर जाना है, 

इक दिन तो मंज़िल आएगी 

गीत पूर्णता का गाना है !


एक बीज से वृक्ष पनपता 

एक अणु में नृलोक समाया, 

एक कोशिका से जन्मा नर 

तन में सारा ज्ञान छिपाया !


सत्य देखना जिस दिन सीखा 

शृंग हिमालय के उठ आये, 

मन के पार उगे हैं उपवन 

कुंज गली में श्याम समाये !


रविवार, अगस्त 18

प्यार का राज यही



प्यार का  राज यही


लिखना-पढ़ना, हँसना-रोना  इतना ही तो आता था 

 आँखों से बतियाना लेकिन तुम्हीं ने सिखला दिया 


ज़िंदगी का यह सफ़र धूप में जब-जब कटा 

बदलियों का एक छाता तुम्हीं ने लगा दिया


कुछ कहें दिलों की दुनिया की कुछ सुनें 

प्यार का  राज यही, तुम्हीं ने बता दिया 


दिल अगर उदास हो देख लो आईना 

प्रीत का चंद्रमा तुम्हीं ने झलका दिया


प्रेम की बयार भी जब अभी बही न थी 

ह्रदय में गुलाब इक तुम्हीं ने उगा दिया


शुक्रवार, नवंबर 25

हीरा मन

हीरा मन 


अँधेरे में टटोले कोई 

और हीरा हाथ लगे 

जो अभी तराशा नहीं  गया है 

पत्थर और उसमें  नहीं है कोई भेद

ऐसा ही है मानव का मन 

वही अनगढ़ हीरा लिए फिरता है आदमी 

अभी जड़ है देह 

और प्राणों में तीव्रता है उन्माद की 

जो  बहुत दूर नहीं ले जा पाती  

नकार की आदत 

हिंसा को जन्माती 

परिस्थितयां घिसेंगी पत्थर  को 

तो चमक उठेगा किसी  दिन  

पर अभी बहुत दूर जाना है 

कठोर राहों पर घिसाना है 

जब पारदर्शी होगा मन 

तो दुनिया भी आड़े नहीं आएगी 

भीतर कैद ज्योति 

पूरी शान से जगमगाएगी ! 

 

गुरुवार, नवंबर 24

स्वप्न भारत का

स्वप्न भारत का


काश ! रशिया को भी 

सदस्यता देने को राजी हो जाये नाटो 

और बाइडेन गले लगा लें पुतिन को 

चाइना ताइवान को आँख दिखाना बंद करे 

और छोटे भाई उत्तर कोरिया 

को भी यही सिखा दे 

कि भूल जाये साऊथ कोरिया से दुश्मनी 

और दोनों देश दोस्त बनें 

यदि पाकिस्तान के सारे आतंकवादी 

रातोंरात सुधर जाएँ 

और तालिबान इक्कीसवीं सदी में जाग जाएँ 

यदि सारा यूरोप अपने वैभव का मुलम्मा उतार 

दुनिया को एक नजर से देखे 

अफ़्रीकी देशों में शिक्षा प्रचार प्रसार हो 

बन्द हो जाये बन्दूकों के कारखाने 

और वैज्ञानिक  मिसाइल 

बनाना बंद कर दें 

यह भारत का स्वप्न है 

और यह स्वप्न जब  हकीकत बनेगा 

तब ही यह  विश्व बचेगा ! 


शुक्रवार, नवंबर 18

यूँ ही कुछ ख़्याल

यूँ ही कुछ ख़्याल

दिल की गहराइयों में छिपा है जो राज 

वह शब्दों में आता नहीं 

जो ऊपर-ऊपर है 

वह सब जानते ही हैं 

उसे कविता में कहा जाता नहीं 

तो कोई क्या कहे 

इससे तो अच्छा है चुप रहे 

लेकिन दिल है, हाथ है 

कलम भी है हाथ में,  इसलिए 

 चुप भी तो रहा जाता नहीं 

मौसम के क़सीदे बहुत गा लिए 

अब मौसम भी पहले सा रहा भी नहीं

बरसात में गर्मी और सर्दियों में 

बरसात का आलम है 

सारे मौसम घेलमपेल हो गए हैं 

कब बाढ़ आ जाएगी कब सूखा पड़ेगा 

कुछ भी तो तय  रहता नहीं 

शरद की रात चाँद निकला ही नहीं 

खीर बनाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता न तब 

दिवाली की रात झमाझम बरसात हो रही थी 

दीपक जलाते भी तो कैसे 

जहाँ तालाब थे आज बंजर ज़मीन है 

जहाँ खेत थे वहाँ इमारतों का जंगल है 

दुनिया बदल रही है 

धरती गर्म हो रही और 

पीने के पानी का बढ़ा संकट है 

कविता खो गयी है आज 

वाहनों के बढ़ते शोर में 

ट्रैफ़िक जाम में फँसा व्यक्ति 

समय पर विवाह मंडप पहुँच जाए 

इतना ही बहुत है 

उससे और कोई उम्मीद रखना नाइंसाफ़ी होगी 

वह प्रेम भरे गीत गाए और रिझाए किसी को 

इन हालातों में यह नाकामयाबी होगी 

अब तो समय से दोनों पहुँच जाएँ मंडप में 

और निभा लें कुछ बरस तो साथ एक-दूजे का

और यही सही समय है इस कलम के रुकने का !

 


शुक्रवार, सितंबर 2

रास्ते हैं, यह बहुत है

रास्ते हैं, यह बहुत है
 

​​मंज़िलें हों दूर कितनीं  

मंज़िलें हैं, यह बहुत है, 

चल पड़े हैं ग़म नहीं अब 

रास्ते हैं, यह बहुत है !


पथ कँटीला पाँव हारे 

जोश दिल में, यह बहुत है, 

नज़र न आए तो क्या है 

साथ है तू, यह बहुत है !


इक अनोखी चीज़ दुनिया 

जश्न मनते, यह बहुत है, 

कब किसी की हुईं पूरी 

चाहतें हैं, यह बहुत है !


उम्र केवल एक गिनती 

बचपन जवाँ, यह बहुत है, 

अजनबी कोई नहीं अब 

तू यहीं है, यह बहुत है !




सोमवार, फ़रवरी 28

इतना सा सच अनुभव कर ले

इतना सा सच अनुभव कर ले

दुनिया बहुत पुरानी फिर भी
नई नवेली दुल्हन सी है,
मानव अभी-अभी आया है
हुई पुरानी उसकी छवि है !

हर सुबह कुदरत नवीन हो 
पुनर्नवा जैसे हो जाती ,
विस्मित होता देख इसे जो
नूतन उसका उर कर देती !

वृक्ष, पवन, पौधे, पर्वत, नद 
सहज हुए सुख बाँटा करते,
मानव जग में बहुरूप धरे 
खुद से दूर कहीं खो जाते  !

जहाँ सृष्टि विनाश भी होगा 
कुदरत सहज भाव से सहती,
 मानव का उर भयभीत सदा 
पल-पल मृत्यु छलावा देती !

किंतु न जाने खुद को शाश्वत 
नश्वरता का जोर नहीं है,
इतना सा सच अनुभव कर ले
उसका कोई छोर नहीं है !

जीवन से भी चूक गया मन 
भय, आशंका, अकुलाहट में,
स्नेहिल धारा शुष्क हो गयी 
अंगारों में घबराहट के !

सदा नि:शंक खिला जो उर हो 
जीवन का रस उसे मिलेगा,
रस की धारा झरे निर्झर सी 
बस उसमें से प्यार बहेगा !

मंगलवार, जनवरी 25

एक चेतना की डोरी से

एक चेतना की डोरी से 

 विजयगान गूँजे दुनिया में 

जय हिंद ! जय भारत न्यारा !

दिप-दिप दमक रहा गौरव से

महिमा मंडित भाल तुम्हारा !


युग-युग से करते आये हो 

संगम चिन्मय आदर्शों का, 

बहती आयी गंगा में नित 

ज्ञान, भक्ति व कर्म की धारा !


सदा सत्य के रहे पुजारी 

उपनिषदों का शुभ ज्ञान दिया, 

कोटि-कोटि जनों ने मिलकर 

सदा दिया उत्कर्ष का नारा ! 


एक चेतना की डोरी से 

बँधा हुआ हर भारत वासी, 

भिन्न बोलियाँ, भिन्न प्रांत हैं 

जुड़ा हुआ है भाग्य हमारा !


भारत माता की संतानें 

उसके हित कर्त्तव्य निभातीं, 

 दुश्मन आँख उठा भर देखे 

वीर सैनिकों ने ललकारा !