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सोमवार, नवंबर 9

अस्तित्व


अस्तित्व

 


बदलियों में छुप गया

फिर आकाश में चाँद

जैसे छिप जाता है कोई

बच्चा खेल-खेल में

परदे के पीछे !

 

दूर वृक्ष की डाली पर

नीला एक फूल खिला

जैसे मुस्काया हो अस्तित्व

अपनी सृष्टि को निहार !

 

रात भर गूँजता है

संगीत झींगुरों का

अनथक वे गाते हैं

अचानक थम गया उनका गान

एक तेज आवाज से काँपी धरा !

 

शायद कहीं कोई विस्फोट हुआ

मानव की लालसा का

टूटा पुन: कोई पहाड़

समतल जमीन पाने हेतु !

 

आनंद सहज ही बरसता हो जहाँ

वहाँ आयोजन करने पड़ते हैं

लोगों को हँसाने के

यह विडंबना नहीं तो और क्या है ?  

शनिवार, अगस्त 2

हर लेता हर कंटक पथ का


हर लेता हर कंटक पथ का


तू गाता है स्वर भी तेरे
लिखवाता नित गान अनूठे,
तू ही गति है जड़ काया में
 बन प्रेरणा उर में पैठे !

तू पूर्ण ! हमें पूर्ण कर रहा
नहीं अपूर्णता तुझको भाती,
हर लेता हर कंटक पथ का
हरि बन सारी व्यथा चुरा ली !

किसका रस्ता अब जोहे मन
पाहुन घर में ही रहता है,
हर अभाव को पूर गया जो
निर्झर उर में बहता है !

तिल भर भी रिक्तता न छोड़े
वही उजाला बन कर छाया,
सारे खन्दक, खाई पाटे
समतल उर को कर हर्षाया !

इक कणिका भी अंधकार की
उस ज्योतिर्मय को न भाती,
एक किरण भी उस पावन की
प्रतिपल यही जताने आती !