किसका
रस्ता अब जोहे मन
तू गाता
है स्वर भी तेरे
लिखवाता नित गान अनूठे,
तू ही गति है जड़ काया में
सहज प्रेरणा, उर में पैठे !
किसका रस्ता अब जोहे मन
पाहुन घर में ही रहता है,
हर अभाव को पूर गया जो
निर्झर उर में वह बहता है !
तू पूर्ण
हमें पूर्ण कर रहा
नहीं
अज्ञता तुझको भाती,
हर लेता
हर कंटक पथ का
स्मृति
अंतर की व्यथा चुराती !
तिल भर
भी रिक्तता न छोड़े
अजर उजाला बन कर छाया,
सारे खन्दक, खाई पाटे
समतल उर को कर हर्षाया !
इक कणिका
भी अंधकार की
तुझ
ज्योतिर्मय को न सुहाती,
एक किरण
भी हिरण्यमय की
प्रतिपल
यही जताने आती !