चर्च लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
चर्च लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, दिसंबर 13

धरती पर स्वर्ग

चिनार की छाँव में - अंतिम भाग

धरती पर स्वर्ग

अभी थोड़ी देर पहले हम कश्मीर की राजधानी श्रीनगर का सिटी टूर करके वापस आये हैं। भारत के जम्मू और  कश्मीर राज्य का सबसे बड़ा शहर श्रीनगर झेलम नदी के किनारे बसा है। सुबह नौ बजे होटल से निकले तो सबसे पहले हम लाल चौक देखने गये। लाल चौक के बारे में न जाने कितने अच्छे-बुरे समाचार मन के पटल पर छा गये। कभी वहाँ आंदोलन होते थे पर आज पूरी तरह शांति थी। कुछ लोग सुबह की धूप सेंक रहे थे। हमने एक व्यक्ति से हमारे समूह की फ़ोटो खींचने को कहा। उसने बाद में बताया यहाँ कोई इंडस्ट्री न होने के कारण बेरोज़गारी ज़्यादा है, वह ख़ुद भी काम की तलाश में है। अभी दुकानें बंद थीं, एक दीवार पर हमने भगवान कृष्ण की सुंदर तस्वीर देखी, जो सनातन धर्म की किसी संस्था ने लगवायी थी। दिल को सुकून सा हुआ कि सभी धर्मों के लोग अब वहाँ अपने रीति-रिवाजों का पालन कर सकते हैं। सदियों पहले यहाँ सम्राट अशोक और चंद्रगुप्त ने राज्य किया था। ऋषियों की इस भूमि पर कभी कालिदास ने भी अपने कदम रखे थे। 

इसके बाद हम सेंट ल्यूक चर्च देखने गये, यह चर्च सौ वर्षों से भी अधिक पुराना है। चर्च के बाहर शानदार बगीचा है। भीतर भव्य पूजा स्थल तथा विशाल हॉल है। केवल एक व्यक्ति  हमें वहाँ मिला, जिसने बताया, मुख्य पादरी मुंबई में रहते हैं, शुक्रवार को आकर सोमवार को वापस चले जाते हैं। हमने कुछ समय वहाँ बिताया। इसके बाद डल झील में शिकारा पर सैर करने की बारी थी।हमारी कार एक चौराहे पर रुकी तो एक छोटी सी लड़की मोजे बेचने आ गई, कुछ आश्चर्य भी हुआ और ख़ुशी भी कि लड़कियाँ भी काम के लिए बाहर निकल रही हैं। लगभग आठ किमी लम्बी और चार किमी चौड़ी डल झील अति खूबसूरत है। झील चार भागों में बंटी हुई है इस पर दो द्वीप भी हैं जो इसे और भी आकर्षक बनाते हैं। झील के शांत जल पर जब नाविक हमारी नाव को खे रहा था, न जाने कितनी फ़िल्मों के कितने गीत स्मृति पटल पर आ-जा रहे थे। फूलों से तथा अन्य सामानों से लदी कई नावें उसमें तैर रही थीं। हवा में हल्की ठंडक थी और धूप भली लग रही थी। शिकारा की साज-सज्जा देखने लायक़ थी, वहाँ बैठने का स्थान भी काफ़ी आरामदायक था। 

तत्पश्चात हम ढाई सौ से अधिक सीढ़ियाँ चढ़कर प्रसिद्ध शंकराचार्य मंदिर देखने गये। भगवान शंकर को समर्पित इस मंदिर का निर्माण राजा गोपादित्य ने ३७१ ईसा पूर्व करवाया था।आठवीं शताब्दी में इसका पुनर्निर्माण हुआ , बाद में डोगरा शासक गुलाब सिंह ने मंदिर तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों का निर्माण करवाया।आदि गुरु शंकराचार्य ने अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान यहाँ तपस्या की थी, एक छोटा सा मंदिर उनकी तप:स्थली पर भी बनाया गया है। अनवरत लोगों की भीड़ वहाँ आ रही थी। 

हमारा अगला पड़ाव था मुग़ल बादशाह जहांगीर द्वारा निर्मित शालीमार बाग, जो अपनी अनुपम सुंदरता के लिए सदियों से जाना जाता है।यहाँ कई नहरें बनायी गई हैं, और विभिन्न ऊचाइयों पर चार विशाल बगीचों का निर्माण किया गया है। अनेक मौसमी फूलों की बहार यहाँ अपने शबाब पर थी पर बाग का रख-रखाव उतना अच्छा नहीं था, जितना हो सकता था। जबकि दोपहर के भोजन के पश्चात जब हम निशात बाग गये तो वहाँ सभी रास्ते स्वच्छ थे, सभी फ़ौवारे काम कर रहे थे। रंग-बिरंगे फूलों को निहारने स्कूल के बच्चों की क़तारें भी वहाँ थीं। यहाँ चिनार और सरू के पेड़ों की लंबी क़तारें मन मोह रही थीं। इस बाग का निर्माण मुग़ल बादशाह की रानी के भाई ने करवाया था। यहाँ भी छोटी नहरों के माध्यम से जल धाराएँ बह रही थीं, जिनके किनारों पर टहलने के लिए रास्ते बनाये गये हैं।यहाँ से डल झील बिलकुल निकट ही है। दोनों ही जगह पर्यटकों की विशाल भीड़ थी, जो कश्मीर के बदले हुए मौसम की खबर दे रही थी। 

लौटते समय  वॉलनट फ़ज की दुकान ‘मूनलाइट’ पर गये। कल सुबह हमें वापस जाना है। इस यात्रा में कितने ही लोगों ने हमारी सहायता की है। उनके नाम कुछ दिनों बाद शायद हम भूल जाएँगे पर मेहमान नवाज़ी का उनका  जज़्बा और आत्मीयता की सुगंध सदा साथ रहेगी। दुनिया में अच्छे लोग अधिक हैं, यह यात्रा इसका अटूट प्रमाण है। सर्वप्रथम बैंगलुरु हवाई अड्डे पर ड्यूटी मैनेजर द्वारा दी गई मदद, फिर दिल्ली हवाई अड्डे पर मिली सहायता। श्रीनगर से पूरे दस दिन ड्राइवर हमारे साथ रहा, जिसने सदा समय पर आकर और उत्साह दिलाकर यात्रा को सुखद बनाया।कई बार पूछे जाने पर भी वह बड़े धैर्य से उन्हीं सवालों का जवाब देता रहा। हाउस बोट का मैनेजर, पहलगाम व अन्य स्थानों के होटलों के कर्मचारी सभी यात्रियों का दिल से स्वागत करते हुए दिखे। पर्यटन ही यहाँ का मुख्य व्यवसाय है, वह शायद हरेक के साथ ऐसे ही पेश आते होंगे। कश्मीर ने सदियों से हिंसा के दौर देखें हैं, अब यहाँ अमन की ज़रूरत है। इसके लिए ज़रूरी है कि हमें भी उनके साथ वैसा ही प्रेम भरा व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम उनसे चाहते हैं।       

रविवार, अक्टूबर 28

कुछ सुनहरे पल गोवा में


प्रिय ब्लोगर साथियों
पिछले माह के अंतिम सप्ताह में मुझे गोवा जाने का सुअवसर मिला, डायरी लिखने की आदत के चलते उस यात्रा के अनुभव मैंने शब्दों और चित्रों में बटोर लिए, अब आपसे उन्हें साझा करने आयी हूँ. आशा है आप भी इसे पढकर भारत के इस सुंदर प्रदेश के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और हो सकता है यह विवरण आपकी अगली यात्रा के लिए प्रेरक भी सिद्ध हो. तो प्रस्तुत है डायरी की चौथी व अंतिम प्रविष्टि -



आज भी सुबह साढ़े पांच बजे हम उठे, अँधेरा ही था तब. आज प्रातः भ्रमण न करके कमरे में ही योग के आसन व प्राणायाम किये. ताजे फल, कॉर्न फ्लेक्स, छोले-भटूरे व दोसे का नाश्ता करके हम गोवा के समुद्री तट देखने निकले,  सबसे पहले ताज होटल का कान्दोलिन बीच देखने गए जहां एक पुरानी इमारत के अवशेष थे, जिसकी दीवारों को सागर की लहरें छू रही थीं, एक गोल इमारत थी, सामने ताज होटल था, उसकी चौड़ी दीवारों पर बैठकर सागर की हवाओं का स्पर्श एक अनोखा अनुभव था. लहरों से ओम की ध्वनि आ रही थी. उसके बाद हम आगुडा नामक किले को देखने गए, जहां किसी फिल्म की शूटिंग चल रही थी. पूरी यूनिट अपना सेटअप लगा रही थी. कैमरे, लाइट, म्यूजिक सिस्टम. आगुडा का अर्थ है पानी, यह किला पुर्तगालियों ने डच व मराठा सेनाओं से बचने के लिए बनवाया था. यहाँ मीठे पानी का एक स्रोत था जिससे समुद्री जहाज पानी का भंडारण किया करते थे. किले में एक लाइट हाउस भी है जो दूर से जहाजों को दिशा निर्देश दिया करता रहा होगा


उसके बाद बारी थी वागातुर समुद्र तट की, जहां ऊपर से सागर के सुंदर दृश्यों को निहारते रहे व दृश्यांकन किया. अंजुना तट पर सीढ़ीयों से नीचे उतर कर चट्टानों पर बैठे व फोटोग्राफी की. कलंगुट तट पर रेतीला मैदान था जहां अनेकों दुकानें लगी थीं. हमने कुछ खरीदारी की. रास्ते में एक किताबों की विशाल दुकान में रुके जिसपर लिखा था ‘गोवा का सबसे बड़ा किताब घर’, जहाँ से गोवा के बारे में एक किताब तथा लोकगीतों व नृत्यों पर आधारित एक डीवीडी खरीदा.  दोपहर बाद पुनः हयात जाना था जहां कोरोजन पर पेपर सुने. शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम था. पुराने हिंदी फ़िल्मी गानों की धुन पर नृत्य करने के लिए मेहमान कलाकारों ने श्रोताओं को भी शामिल कर लिया. लौटते हुए दस बज गए थे. अगले दिन फिर नौ बजे हयात पहुंचे कांफ्रेंस में शामिल हुए, ‘कोरोजन और पनिशमेंट’ पर भाषण का दूसरा भाग था. बाद में पतिदेव ने नेस की सदस्यता ग्रहण की. वहाँ से हम बाजार गए, मित्रों के लिए गोवा की मिठाई खरीदी.

दोपहर के भोजन के बाद हम पुराने गोवा के चर्च देखने गए, दो अति प्राचीन चर्च आमने सामने हैं, से कैथ्रेडल तथा सेंट फ्रांसिस चर्च जो गोवा की शान हैं. सोलहवीं शताब्दी में बने ये चर्च वास्तुकला का अद्भुत नमूना हैं. बाहर सुंदर बगीचा है, जिसमें बगुलों का एक झुण्ड आकाश में उडकर एक लॉन से दूसरे में जा रहा था. वहाँ से लौटे तो होटल के पास स्थित बागा मैरीना तट पर गए, पिछले चार दिनों में यहाँ का बदलाव अनोखा था, बीच पर अनेकों दुकानें खुल गयी थीं. बीसियों बार थे, लोग खाना पीना कर रहे थे, कुछ लोग नाच रहे थे. कुछ मसाज करवा रहे थे. लोगों का उत्साह यहाँ देखते ही बनता है. जैसे गोवा मस्ती का पर्याय हो. कुछ समय वहाँ बिता कर हम लौट आए. गोवा में यह हमारी अंतिम रात्रि है, यहाँ होटल में भी मेहमानों की संख्या एकाएक बढ़ गयी है.


आज यहाँ हमारा अंतिम दिन है, अभी कुछ देर पहले ही हम नाश्ता करके आए. पास के मार्केट तक पैदल ही गए, एक छोटा सा उपहार खरीदा, यहाँ होटल के स्टाफ को छोटी-छोटी काजू की चाकलेट्स दीं, इतने दिन यहाँ रहते हुए सभी से परिचय हो गया है. सुबह उठकर सागर तट पर टहलने गए, कुछ लोग रेत पर ही सो रहे थे. एक ग्रुप में देखा दो-तीन लडकियां नशे के बाद अजीब सी हालत में वापस आ रही थीं. यहाँ होटल में भी कल से कमरे से निकलते ही सिगरेट व अल्कोहल की गंध नाक में घुसने लगी है, गोवा में सुबह से मुसाफिर सुरूर में आ जाते हैं. समुद्र तट पर सामिष भोजन करते हैं. तामसिक वृति का उदाहरण है यहाँ का जीवन, जिससे लोगों में संयम, श्रद्धा आदि भावनाएं दब जाती हैं, जो पर्यटक बाहर से आते हैं, वही ऐसा करते हैं, आज पहले दिन की अपेक्षा तट कितना गंदा लग रहा था. भीतर तो सबके वही परमात्मा है. तामसिक वृत्ति का इंसान या तो खाता है, या काम करता है या सोता है चौथा काम उसे आता ही नहीं. उसका कोई घर ही नहीं वह जाये भी कहाँ, जिसको अपना पता नहीं वह इंसान कितना अकेला है इस विशाल दुनिया में. जीवन का ऐसा ही रवैया है.