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शुक्रवार, सितंबर 8

एक अजब सा खेल चल रहा


एक अजब सा खेल चल रहा


इक ही धुन बजती धड़कन में
इक ही राग बसा कण-कण में,
एक ही मंजिलरस्ता एक
इक ही प्यास शेष जीवन में !

मधुरम धुन वह निज हस्ती की
एक रागिनी है मस्ती की,
एक पुकार सुनाई देती
दूर पर्वतों की बस्ती की !

मस्त हुआ जाये ज्यों नदिया
पंछी जैसे उड़ते गाते,
डोलें मेघा संग हवा के
बेसुध छौने दौड़ लगाते !

खुला हृदय ज्यों नीलगगन है
उड़ती जैसे मुक्त पवन है,
दीवारों में कैद न हो मन
अंतर पिय की लगी लगन है !

एक अजब सा खेल चल रहा
लुकाछिपी है खुद की खुद से,
मन ही कहता मुझे तलाशो
मन ही करता दूर स्वयं  से !