सदियों से थिर थे जो पर्वत
उतरी है गोमुख से गंगा
गंगोत्री में तनिक ठहरती,
हिम शिखरों से ले शीतल जल
चट्टानों में मार्ग बनाती !
भीम वेग, सौन्दर्य अनोखा
लख ऋषियों ने गाए स्त्रोत,
उर जल राशि अपार समेटे
करती भूमि को ओत प्रोत !
आज हुई है रुष्ट क्यों जाने
बहा ले गयी जड़-चेतन सब,
मन्दाकिनी, जो प्राण दायिनी
नाचे काल भैरवी सी अब !
जान्हवी की पावन धारा
बनी साक्षी इस विनाश की,
सदियों से थिर थे जो पर्वत
बिखरे ज्यूँ इमारत ताश की !
गंगा की सप्त धाराएँ
मिलकर एक हुईं जिस जगह,
आज बनी श्मशान बिलखती
देव भूमि अनाथ की तरह !
किन्तु थमेगा तांडव शिव का
नर-नारायण पुनः मिलेंगे,
शेष रहा जो पनपेगा फिर
गंगा के तट पुनः बसेंगे !