उसने कहा था
एक ही पाप है
और कितना सही कहा था
उस एक पाप का दंड भोग रहा
है हर कोई
बार-बार दोहराता है
उस एक पाप के बोझ तले दबकर
पिसता है, नींदें गंवाता है
खुद की अदालत में खड़ा होता
है
वादी भी स्वयं है और
प्रतिवादी भी
अपने ही विरुद्ध किया जाता
है यूँ तो हर पाप
यह पाप भी खुद को ही हानि
पहुंचाता है
इसका दंड भी निर्धारित करना
है स्वयं ही
'असजगता' के इस पाप को नाम
दें 'प्रमाद' का
अथवा तो स्वप्नलोक में
विचरने का
जहाँ जरूरत थी... जिस घड़ी
जरूरत थी...
वहाँ से नदारद हो जाने का
यूँही जैसे झाँकने लगे कोई
बच्चा कक्षा से बाहर
जब सवालों के हल बताये जा
रहे हों
या छोड़ दे कोई खिलाड़ी हाथ
में आती हुई गेंद
उसका ध्यान बंट जाये
हर दुःख के पीछे एक ही कारण
है
अस्तित्त्व को हर पल उपलब्ध
होना ही निवारण है
वरना रोना ही पड़ेगा बार-बार
सजगता ही खोलेगी सुख का द्वार !