कैसा यह बंधन है !
बांधा था हमने खुद को अपने ही शौक से
उसने तो भागने के रस्ते सुझाये थे
पिंजरे का द्वार खोल इशारे भी कर दिये
उड़-उड़ के पंछी लौट के पिंजरे में आये थे
सुख की तलाश करते तो क्यों नहीं मिलता
हमको उदास नगमे बचपन से भाए थे
ममता ने लूटा दिल को सपने दिखा-दिखा
चादर गमों की ओढ़ के जब मुस्कुराये थे
इंसान की है फितरत गिरता सम्भल-सम्भल के
अश्को में काटी रात दिन हंस के बिताए थे
मजबूरियां बता के मधुशाला से न निकला
कुछ खुद लिये थे जाम कुछ उसने थमाए थे
हँसता रहा खुदा भी दरवेश खिलखिलाया
तौबा किये सनम जब डगमगाए थे
अपनी ही झोंपड़ी थी अपना ही गाँव था
जलती मशाल छोड़ हुजूम लौट आये थे
दुःख से तो वास्ता था सुख दूर का सम्बन्धी
क्या था कुसूर अपना रिश्ते निभाए थे
जब भी मिले थे हँस के शायद छिपा रहे थे
भीतर दुखों के साये अनगिन समाये थे
अनीता जी ...बहुत ही हृदयस्पर्शी भाव हैं ...बहुत सुंदर लिखा है ...
जवाब देंहटाएंनमन आपकी कलम को ...
प्रभु आशीष बना रहे ..
जब भी मिले थे हँस के शायद छिपा रहे थे
जवाब देंहटाएंभीतर दुखों के साये अनगिन समाये थे
Wah .. meri gud morning acchi kar di aapne.
बहुत ही हृदयस्पर्शी भाव हैं .मन को छू लिया
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी भाव अच्छी रचना...अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत ही अच्छी लगीं.
जवाब देंहटाएं......श्रावण मास की हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंजय भोलेनाथ
वाह|
जवाब देंहटाएंजबरदस्त रचना ||
बहुत सुन्दर भावों को अभिव्यक्त किया है आपने अनीता जी .आभार
जवाब देंहटाएंदुःख से तो वास्ता था सुख दूर का सम्बन्धी
जवाब देंहटाएंक्या था कुसूर अपना रिश्ते निभाए थे
वाह.....अनीता जी शानदार ग़ज़ल.....आपके ब्लॉग पर उर्दू की ग़ज़ल पढ़ कर दिल और भी खुश हो जाता है .....ऐसे ही लिखती रहें.......शुभकामनायें|
आपको आज की मीरा कहूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी .वही ऊँचाई , वही भाव...सर्वोत्तम
जवाब देंहटाएंजीवन की सच्चाई को बयान करती एक बेहद यथार्थ कविता .
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