मन - छाया
छायाओं से लड़कर कोई
जीत सका है भला आजतक
सारी कश्मकश
छायाएँ ही तो हैं
उनके परिणामों से बंधे
हम जन्म-जन्म गँवा देते हैं
ज़रूरत है प्रकाश में खड़े होने की
तब न कोई कारण है न परिणाम
न कोई चाहत न अरमान
मन को ख़ाली करना ही
ज्योति की शरण में आना है
सारा उहापोह जो न जाने
कब से एकत्र किया है भीतर
इसके-उसके,
अपनों-बेगानों,
दुनिया-जहान और
खुद की कमज़ोरियों के प्रति
सभी छायाएँ हैं मात्र
जिन्हें सच मान बैठा है मन
सच करुणा व प्रेम का वह स्रोत है
जो प्रकाश से झरता है
सहज आनंद का स्वामी
जहाँ निर्द्वंद्व बसता है
जो शिव का वास है
वही तो देवी का कैलाश है !