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मंगलवार, अप्रैल 4

मन - छाया


मन - छाया


छायाओं से लड़कर कोई 

जीत सका है भला आजतक 

सारी कश्मकश 

छायाएँ ही तो हैं 

उनके परिणामों से बंधे 

हम जन्म-जन्म गँवा देते हैं 

ज़रूरत है प्रकाश में खड़े होने की 

तब न कोई कारण है न परिणाम 

न कोई चाहत न अरमान 

मन को ख़ाली करना ही 

ज्योति की शरण में आना है 

सारा उहापोह जो न जाने 

कब से एकत्र किया है भीतर 

इसके-उसके,  

अपनों-बेगानों, 

दुनिया-जहान और 

खुद की कमज़ोरियों के प्रति 

सभी छायाएँ हैं मात्र 

जिन्हें सच मान बैठा है मन 

सच करुणा व प्रेम का वह स्रोत है 

जो प्रकाश से झरता है 

सहज आनंद का स्वामी 

जहाँ निर्द्वंद्व बसता है 

जो शिव का वास है 

वही तो देवी का कैलाश है !