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शुक्रवार, सितंबर 7

तू अंतर को प्रेम से भर ले



तू अंतर को प्रेम से भर ले

व्यर्थ ही तू क्यों चिंता करता
तेरे लिए तो मैं हूँ ना,
तू अंतर को प्रेम से भर ले
कुछ अप्राप्य रहेगा ना !

तुम हम फिर मिलकर डोलेंगे
उलझन में तू क्यों भ्रमता है,
मन जो गोकुल बन सकता था
क्यों उदास सा तकता है !

तू है मेरा प्रियतम अर्जुन !
वंचित क्यों है परम प्रेम से,
क्या जग में जो पा न सकता
जग चलता है यह प्रेम से !

सब कुछ सौंप दिया है तुझको
अगन, पवन, जल और धरा में,
किस आकर्षण में बंध कर तू
डोले सुख-दुःख, मरण-जरा में !

करुणा सदा बरसती सब पर
बस तू मन को पात्र बना ले,
जीवन बन जायेगा मंदिर
दिवस-रात्रि का गान बना ले !