ठहर गया उर ज्यों आकाश
विरस हुआ जग से जब कोई
स्वरस में डूबा उतराया,
धीरे-धीरे उससे उबरा
रस कोई भी बांध न पाया !
जग से लौटा ठहरा खुद में
स्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
मन इससे भी रिक्त हुआ !
अब न कोई दौड़ शेष है
न जग की न भीतर की ही,
ठहर गया उर ज्यों आकाश
कंपती नहीं ज्योति अंतर की !