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बुधवार, फ़रवरी 22

ठहर गया उर ज्यों आकाश


ठहर गया उर ज्यों आकाश


विरस हुआ जग से जब कोई
स्वरस में डूबा उतराया,
धीरे-धीरे उससे उबरा
रस कोई भी बांध न पाया ! 

जग से लौटा ठहरा खुद में
स्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
मन इससे भी रिक्त हुआ !

अब न कोई दौड़ शेष है
न जग की न भीतर की ही,
ठहर गया उर ज्यों आकाश
कंपती नहीं ज्योति अंतर की !