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सोमवार, फ़रवरी 27

बंटना ही जीवन है



 बँटना ही जीवन है 

सूर्य बाँटता है अपनी ऊर्जा
सृष्टि के हर कण से
पुहुप  सांझा करता है
 मधु और गंध
हवा प्रवेश करती आयी है अनंत नासापुटों में
अनंत काल से !

अस्तित्त्व लुटा रहा है बेशर्त पल-पल
जितना देता है वह
 उतना ही भरता जाता है
न जाने  किस अदृश्य कोष से !

लुटाती है माँ अपने अंतर का प्रेम
पोषित होगी शिशु की आत्मा
देह भी उष्ण है मन की ऊष्मा से !

शुचिता है वहाँ जहाँ बहाव है
अटका हुआ मन ही उलझाव है
रोक ली गयी ऊर्जा ही
मन का भटकाव है
अनवरत झरती ऊर्जा ही
भक्ति का भाव है !