साक्षीभाव
संवेदनाओं का ही तो खेल है
चल रहा है छल इन्हीं का...
संवेदनाएं, जो घटतीं हैं मन की भूमि पर
और प्रकटती हैं देह धरातल पर
जहाँ से पुनः
ग्रहण की जाती हैं मन द्वारा
और फिर प्रकटें देह.....
मान पा जब उमगाया मन
झेल अवमान कुम्हलाया...
उपजती है संवेदना की मीठी व कड़वी फसल
देह के खेत पर
पड़ जाती है एक नई झुर्री हर नकार के बाद
और खिल जाता है कहीं गुलाब हर स्वीकार के बाद
लेकिन गुलाब की ‘मांग’ बढ़ती है, और यही है वह कांटा
जो मिलने ही वाला है गुलाब के साथ...
हर झुर्री भी जगाती है वितृष्णा
यानि एक नई झुर्री की तैयारी !
खिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल को
आते-जाते मौसमों का साक्षी
वह टिका है भीतर
खेल से परे सदा आनंद में !
खिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल को
जवाब देंहटाएंआते-जाते मौसमों का साक्षी
वह टिका है भीतर
खेल से परे सदा आनंद में
ek dam sahi kaha anita ji.
खिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल को
जवाब देंहटाएंआते-जाते मौसमों का साक्षी
वह टिका है भीतर
खेल से परे सदा आनंद में !
बहुत गहरे भाव ..एकदम सार्थक...
एक एक शब्द में सार छुपा है ...
जीवन मार्गदर्शन देती हुई सुंदर रचना ..अनीता जी ...
सच है संवेदनाएं अपना निशाँ छोड़ जाती हैं किसी न किसी रूप में ... जो प्रगट होता है किसी और रूप में ...
जवाब देंहटाएंअति उत्तम विश्लेषण्…………जिस दिन ये साक्षीभाव आ गया इंसान सबसे ऊपर उठ जायेगा मगर ये आना ही मुश्किल होता है मायाजाल मे इस कदर जकडा है कि इस तरफ़ सोच भी नही पाता है।
जवाब देंहटाएंपड़ जाती है एक नई झुर्री हर नकार के बाद
जवाब देंहटाएंऔर खिल जाता है कहीं गुलाब हर स्वीकार के बाद
बहुत खूब...बधाई ||
खिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल क-sach kaha hai aapne .sundar rachna .aabhar
जवाब देंहटाएंकितनी अच्छी बात है आपकी इस सुंदर रचना में । बड़ा कठिन है इसे जीवन में उतारना । काश सब कर पाते ऐसा ।
जवाब देंहटाएंअंतिम पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं.
जवाब देंहटाएंसादर
@ अनीता जी बहुत ही सुन्दर रचना है ........जो सदा एक सा है अविचलित बस वही लक्ष्य है.......बहुत ही सुन्दर लगी ये पंक्तियाँ.....
जवाब देंहटाएंमान पा जब उमगाया मन
झेल अवमान कुम्हलाया...
उपजती है संवेदना की मीठी व कड़वी फसल
देह के खेत पर
पड़ जाती है एक नई झुर्री हर नकार के बाद
और खिल जाता है कहीं गुलाब हर स्वीकार के बाद
लेकिन गुलाब की ‘मांग’ बढ़ती है, और यही है वह कांटा
जो मिलने ही वाला है गुलाब के साथ...
हर झुर्री भी जगाती है वितृष्णा
यानि एक नई झुर्री की तैयारी !
खिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल को
आते-जाते मौसमों का साक्षी
वह टिका है भीतर
खेल से परे सदा आनंद में !
बहुत ही सरलता से समझा दिया है इस कविता के माध्यम से कि हमारा स्वास्थ्य कैसे प्रभावित होता है मन के द्वारा..चिर युवा रहना है तो साक्षी बन के रहना सीखें.
जवाब देंहटाएंखिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल को
जवाब देंहटाएंआते-जाते मौसमों का साक्षी
वह टिका है भीतर
खेल से परे सदा आनंद में !
एक दम सही जीवन को सही तरीके से जीना वही जानता है जो इस मानवीय पहलु को समझता हो कि यह सृष्टि खुदा की है ....हमारा वसेरा तो चंद दिनों का है ....आपका आभार
bakhoobi bayaan ki bhaavo ke padne wale asar ko....aur sunder bimbo ka prayog ruchikar raha.
जवाब देंहटाएंबहुत गहन अर्थ को संजोये आपकी यह प्रस्तुति ..अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंपड़ जाती है एक नई झुर्री हर नकार के बाद
जवाब देंहटाएंऔर खिल जाता है कहीं गुलाब हर स्वीकार के बाद
लेकिन गुलाब की ‘मांग’ बढ़ती है, और यही है वह कांटा
जो मिलने ही वाला है गुलाब के साथ...
हर झुर्री भी जगाती है वितृष्णा
यानि एक नई झुर्री की तैयारी !
बहुत गहन चिंतन को समाये एक अद्भुत प्रस्तुति...आभार
गहन भावाभिव्यक्ति. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.