स्वप्न और जागरण
तुमने अपने स्वप्न से मुझे आवाज दी है
तुम बेचैन हो...
शायद भयानक स्वप्न देख रहे हो कोई
पर मैं जाग रही हूँ और नहीं जानती कि
स्वप्न में कैसे प्रवेश किया जाता है
तुम्हारी नींद गहरी है और तुम जागना नहीं चाहते
पर घबराहट झलक रही है तुम्हारे चेहरे पर
स्वप्न की इस दुनिया से बाहर निकल कर ही
तुम्हें भान होगा...अरे, यह तो स्वप्न था
मात्र स्वप्न !
लेकिन तुम्हें प्यारी है नींद भी
तो गिरते हो गड्ढों में या छूट जाती है रेल
बढ़ जाती हैं दिल की धडकनें
यह सब होता है स्वप्न में
उसी में तुम पुकारते हो ईश्वर को
जो जगे हुए को ही मिलता है
किसी के स्वप्न में प्रवेश करना उसे भी नहीं आता
तुम चाहोगे क्या कोई बिना अनुमति के प्रवेश करे
तुम्हारे स्वप्न में...जागना ही होगा तुम्हें...
bahut achche bhaav kuch paane ke liye to neend se jaagna hota hi hai.
जवाब देंहटाएंस्वप्न की इस दुनिया से बाहर निकल कर ही
जवाब देंहटाएंतुम्हें भान होगा...अरे, यह तो स्वप्न था
मात्र स्वप्न !
नींद से जागना तो फिर भी आसान है... तन्द्रा टूटनी मुश्किल होती है...! तन्द्रालीन चेतना जागेगी तभी जागरण के गीत आत्मसात होंगे!
स्वप्न और जागरण की बात करते हुए कविता बड़ी गूढ़ सच्चाई की और इंगित कर रही है!
जागता ही तो नहीं इंसान ... बहुत सुन्दर रचना ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही खुबसूरत और कोमल भावो की अभिवयक्ति......
जवाब देंहटाएंराजेश कुमारी जी, संगीता जी, सुषमा जी, व अनुपमा जी, आप सभी का स्वागत व आभार!
जवाब देंहटाएंस्वप्न की इस दुनिया से बाहर निकल कर ही
जवाब देंहटाएंतुम्हें भान होगा...अरे, यह तो स्वप्न था
मात्र स्वप्न !sach hai