छूट गयी जब “मैं”
छूट गयीं सारी व्यस्तताएँ
छूट गयी जब मैं,
सारे जहाँ का समय अब मुट्ठी में आ गया
छूट गयी जब मैं,
कुछ भी करने को नहीं है जब
है अनंत वक्त अपनी मुट्ठी में
बेफिक्री कैसी पायी है
छूट गयी जब मैं,
फूल ज्यों होता है
अस्तित्त्व हमारा ऐसा ही है
जग तय करता है
उपयोगिता उसकी...
वह तो खिलता है बस अपनी मौज में
यह देह जहाँ भी रहे, काम आये जग के
वाणी हो उपयोगी
और ये हाथ उगायें फूल या लिखें कविता !
मन का तो अब पता ही नहीं चलता
जैसे सूर्य के आते ही अंधकार का
छूट गए सारे आग्रह
सारी पकड़ भी छूट गयी....
अब भीतर मीलों तक चैन बिछा है
अंतहीन शांति
आज समय ही समय है....
जन्मों का यायावर घर लौट आया है
अब नहीं उठानी गठरी
और न ही चलना किसी अगले पड़ाव को
जिस पार उतरने की आस लगाये था मन
दौड़ता फिर रहा था
आज आ पहुँचा है
खत्म हो गयी सारी आपाधापी
और भीतर खाली है
वहाँ कोई भी नहीं है, यात्री लौट गया
पंछी उड़ गया...
...deep thoughts dealt appropriately!
जवाब देंहटाएंregards,
बहुत खूबसूरत |
जवाब देंहटाएंगहन भाव
जवाब देंहटाएंजन्मों का यायावर घर लौट आया है
जवाब देंहटाएंअब नहीं उठानी गठरी
और न ही चलना किसी अगले पड़ाव को
....उत्कृष्ट भावमयी पंक्तियाँ..आभार
बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंवहाँ कोई भी नहीं है, यात्री लौट गया
जवाब देंहटाएंपंछी उड़ गया...
अंतिम लक्ष्य की ओर्……………अनन्त मे समाहित होने
अति उत्तम
जवाब देंहटाएंज़बरदस्त भावों से लबरेज़.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिवयक्ति.....
जवाब देंहटाएंछूट गयी जब मैं..खुद को कभी न मिलूं तो आनंद ही आ जाए..
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