घट-घट में आकाश बंट रहा
धूप बंट रही पोखर-पोखर
भर जाती खेतों को छूकर
हवा बंट रही अनगिन उर में
जाती खिल-खिल जीवन बनकर
जल बंटता अवनि अम्बर में
धरा बंट रही पादप रचकर
घट-घट में आकाश बंट रहा
फिर क्यों हम अनबंटे रह गये
सीमाओं में छंटे रह गये ?
जो बंट जाता वही बचा है
ऐसा ही यह खेल रचा है
एक अनेकों रूप बनाये
हर इक स्मित में मुस्का जाये !
मिलबाँट कर रहना ही जीवन का मूलमंत्र है - सह-अस्तित्व के बिना संसार संभव ही नहीं .अनिता जी,आपने सही कहा इसी में सुख-संतोष भी है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर व सार्थक अभिव्यक्ति ....!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर अर्थ और भाव प्रेरित रचना। लेमन ग्रास अब हिंदी का ही शब्द है।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर भाव है जो रुक कर सोचने के लिए प्रेरित करता है..
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी, अनुपमा जी, वीरू भाई व अमृता जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंकल 08/जून/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
बहुत बढ़िया भाव ...
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