गुरुवार, सितंबर 9

गाकर कोई गीत मुक्ति का


 गाकर कोई गीत मुक्ति का 


मन नि:शंक हो, ठहरे जल सा 

जब इक दर्पण बन जाए,

झांके कहीं से आ कोई

निज प्रतिबिम्ब दिखा जाए !


मन उदार हो, जलते रवि सा 

जब इक दाता बन जाए, 

 हर ले सारी उलझन कोई

निज मुदिता से भर जाए !


मन बहता हो,निर्मल जल सा 

जब इक निर्झर बन जाए, 

 आकर कोई सारे जग की 

शीतलता फिर भर जाए !


मन विशाल हो, छाया हर सूँ 

विमल गगन सा बन जाए, 

 गाकर कोई गीत मुक्ति का 

हर बंधन को हर जाए !




12 टिप्‍पणियां:

  1. मन बहता हो,निर्मल जल सा

    जब इक निर्झर बन जाए,

    आकर कोई सारे जग की

    शीतलता फिर भर जाए ! की आशा में हम रोज ब रोज ढूबते उतराते हैं अनीता जी----बहुत सुंदर पंक्‍त‍ियां, मन तृप्‍त हुआ पढ़कर ।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१०-०९-२०२१) को
    'हे गजानन हे विघ्नहरण '(चर्चा अंक-४१८३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. मन नि:शंक हो, ठहरे जल सा

    जब इक दर्पण बन जाए,

    झांके कहीं से आ कोई

    निज प्रतिबिम्ब दिखा जाए !

    Very meaningful lines. Great work god bless you

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  4. मन बहता हो निर्मल जल सा ...
    सच है अगर मन इतना शुद्ध हो जाता है तो इश्वर स्वयं उसको साध लेते हैं ...
    फिर संसार से आप ही मुक्त हो जाता है इंसान ...

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  5. मन निर्मल हो , सुंदर भाव ।

    गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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  6. मन को अलौकिक विश्राम मिलता है यहाँ आकर । हार्दिक आभार ।

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  7. अलकनंदा जी, हरीश जी, गोपेश जी, संगीता जी, अमृता जी, दिगम्बर जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  8. अनीता जी नमस्कार...। बेहतर समझें तो इसे हमारी पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ के अगले अंक में आप प्रेषित कर सकती हैं...। ईमेल या व्हाटसऐप कीजिएगा। रचना के साथ संक्षिप्त परिचय और अपना एक फोटोग्राफ। बेहतर होगा 20 सितंबर के पहले प्रेषित कर दीजिएगा। आभार

    प्रकृति दर्शन, पत्रिका
    website- www.prakritidarshan.com
    email- editorpd17@gmail.com
    mob/whatsapp- 8191903651

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