जब उर अंधकार खलता है
जगमग शिखि समान तब कोई
सुहृद सहज आकर मिलता है
पूर्ण हुआ वह राह दिखाता
नहीं अधूरापन टिकता है
अविरल बहे काव्य की धारा
उर मरुथल बन क्यों रहता है
थिर पाहन सा जब हो मानस
निर्झर तब उससे बहता है
प्रीत अगन उसको पिघला दे
मन जो सघन विरह सहता है
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 01 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!