अनंत के दर्पण में
अंतर के तनाव को
आत्मा के अभाव को
भावों का रूप बनाकर
कविता रचती है !
मानो पंक में कमल उगाती
जीवन में कुछ अर्थ भरती है !
इस अंतहीन दुनिया में
अरबों मस्तिष्कों के
साथ, एक नाता बांधती
ज्यों अधर में ठहरती है !
अनंत के दर्पण में
अनायास ही संवरती
बार-बार सच का सामना कराती
जो अवाक कर दे
वही बात सुनाती है !
अनावृत हो आत्मा
गिर जाएँ सारे आवरण
तभी वह उतरती
डोलते हुए भंवर में
टिकने को थल देती है !
वाह सुन्दर यात्रा शब्दों की कविता में!!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
जवाब देंहटाएंअप्रतिम रचना।
जवाब देंहटाएंवाह लाजबाव सृजन
जवाब देंहटाएंज्योति जी, उर्मिला जी व भारती जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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