पल पल इसको वही निखारे
दी उसने ही पीर प्रेम की
दिलों में भर देता विश्वास,
उड़ने को दो पंख दिए हैं
दिया अपार अनंत आकाश !
वही बढ़ाये इन कदमों को
नित रचता नूतन राहों को,
लघुता झरी ज्यों बासी फूल
सदा जगाया शुभ चाहों को !
कूके जो कोकिल कंठों से
महक रहा सुंदर फूलों में,
उससे ही यह विश्व सजा है
सीख छिपी शायद शूलों में !
कोई भूला उसे न जाने
दुःख अपने ही हाथों बोता,
केवल निज सत्ता पहचाने
नित दामन अश्रु से भिगोता !
स्वामी है जो सकल जहाँ का
उसकी जय में खुद की जय है,
नाम सदा उसका ही लेना
उस संग हर कोई अजय है !
वही गगन, जल, अगन बना है वही हवा, धरती बन धारे, उसने ही यह खेल रचाया पल पल इसको वही निखारे !
हम उसके बनकर जब रहते
सहज पुलक में भीगा करते,
उसकी मस्ती की गागर से
छक-छक कर मृदु हाला पीते !
"वही गगन, नीर, पावक बना, वही हवा, धरती बन धारे,
जवाब देंहटाएंउसने ही यह खेल रचाया, पल पल इसको वही निखारे !"
इन्हीं शब्दों में उपानिषदों का सार छुपा है।
सही कह रहे हैं आप, परमात्मा जगत का उपादान कारण भी है और निमित्त कारण भी, स्वागत व आभार !
हटाएंउस मालिक को याद रखें तो सब कुछ सरल है । बहुत सुंदर कृति ।
जवाब देंहटाएंसही है, जिसने हमने रचा है उसे भूल कर हम खुश नहीं रह सकते, स्वागत व आभार !
हटाएंवाह सारपूर्ण अभिव्यक्ति!!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अनुपमा जी !
हटाएंबहुत ही सारगर्भित रचना !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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