गुरुवार, जून 16

भेद - अभेद

भेद - अभेद 

यह चाह कि कोई देखे 

फूल को खिलने नहीं देगी 

वह तो अच्छा है कि 

किसी फूल को यह चाह नहीं होती 

बड़ा फ़ासला है तेरे मेरे बीच 

इसी चाह के कारण 

वरना यह मुहब्बत कब की 

परवान चढ़ गयी होती 

पलकें उठा के देखते हैं वह 

 नज़रें किसी की टिकी हैं या नहीं 

अपनी सीरत पे यक़ीन नहीं आता 

हसीनों को भी 

ज़िंदगी जैसी भी है 

खूबसूरत है 

लाइक्स की चाह ने इसे 

क्या से क्या न बना दिया 

देखने वाला भी वही

 देखा गया भी वही 

क्यों भेद की दीवार कोई 

बीच में  उठा गया !


13 टिप्‍पणियां:

  1. लाइक्स की चाह ने क्या से क्या बना दिया ....बहुत अच्छी रचना

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ जून २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. सटीक!! श्र्लाघ्य।
    चिंतन परक।

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