भेद - अभेद
यह चाह कि कोई देखे
फूल को खिलने नहीं देगी
वह तो अच्छा है कि
किसी फूल को यह चाह नहीं होती
बड़ा फ़ासला है तेरे मेरे बीच
इसी चाह के कारण
वरना यह मुहब्बत कब की
परवान चढ़ गयी होती
पलकें उठा के देखते हैं वह
नज़रें किसी की टिकी हैं या नहीं
अपनी सीरत पे यक़ीन नहीं आता
हसीनों को भी
ज़िंदगी जैसी भी है
खूबसूरत है
लाइक्स की चाह ने इसे
क्या से क्या न बना दिया
देखने वाला भी वही
देखा गया भी वही
क्यों भेद की दीवार कोई
बीच में उठा गया !
लाइक्स की चाह ने क्या से क्या बना दिया ....बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ जून २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार!
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जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब!
बहुत बहुत आभार!
जवाब देंहटाएंवाह!वाह!गज़ब कहा दी 👌
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी!
हटाएंसटीक!! श्र्लाघ्य।
जवाब देंहटाएंचिंतन परक।
सुस्वागतम कुसुम जी!
हटाएंबहुत खूब..........
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
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