उसी आकाश को लाके ओढ़ाया है
चाहने वालों ने ही कर के दिखाया है
पत्थरों में भी भगवान जगाया है
यूँ तो हर जगह समायी है नमी, लेकिन
बादलों ने ही उसे भू पर बहाया है
कण-कण में उसकी हाज़िरी होगी मगर
किसी राम किसी कृष्ण में नज़र आया है
भूल गया था यह ज़माना जब-जब हक़ीक़त
ज्ञान गीता का फिर-फिर पढ़ाया है
हम वह आकाश हैं जो कभी मिटता नहीं
उसी आकाश को लाके ओढ़ाया है
आग जलती रहे भीतर इश्क़ की सदा
रुलाया लाख पर इसने ही हँसाया है
निरंजन डोलता रहा हवा की मानिंद
किसी ने धूप चंदन का जलाया है
आग जलती रहे भीतर इश्क़ की सदा
जवाब देंहटाएंरुलाया लाख पर इसने ही हँसाया है
शानदार अभिव्यक्ति !!
स्वागत व आभार अनुपमा जी!
हटाएंबहुत सुंदर रचना । चाहने वाले बुत में भी प्राण फूँक देते हैं ।
जवाब देंहटाएंसही है, स्वागत व आभार संगीता जी!
हटाएंबहुत बहुत आभार कामिनी जी!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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