'है' एक अपार अचल कोई
गर ‘है’ में टिकना आ जाए
‘नहीं’ का कोई सवाल नहीं,
तृण भर भी कमी कहाँ ‘है’ में
‘नहीं’ उलझन की मिसाल वहीं !
‘नहीं’ कुछ भी हल नहीं होता
जग सागर में उठतीं लहरें,
‘है’ एक अपार अचल कोई
बन शीतलता देता पहरे !
‘है’ की तलाश में ‘नहीं’ लगा
हल भी मिलता आधा आधा,
कैसे यह बुझनी सुलझेगी
जब तक न बने उर यह राधा !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-6-22) को "घर फूँक तमाशा"(चर्चा अंक 4465) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसकारात्मक सोच को लिए अच्छी रचना ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह ! अच्छी और सकारात्मक सोच ही हमको हमारी मंज़िल तक पहुंचा सकती है.
जवाब देंहटाएंसही कह रहे हैं आप, आभार !
हटाएंशानदार और सराहनीय प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
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