बूंद जैसे ओस की हो
जल रही है ज्योति भीतर
तिमिर पर घनघोर छाया,
स्रोत है अमृत का सुखकर
किन्तु मन तृप्ति न पाया !
औषधि के घट भरे हैं
वृक्ष सारे जो हरे हैं,
किन्तु रोगी तन हुए हैं
क्षुधा को हरना न आया !
एक मीठी प्यास जागे
उस अलख की आस जागे,
बस यही कर्त्तव्य भूला
जग तू सारा छान आया !
चाँद पर पहुँचा है मानव
किन्तु पृथ्वी को उजाड़ा,
रौंद डाले हरे जंगल
मानवों ने कहर ढ़ाया !
जहाँ धन ही देवता हो
कौन खोजे आत्मा को,
जहाँ मन ही बना राजा
ठगे क्यों न वहाँ माया !
माना थोड़ा सुख मिला है
बूंद जैसे ओस की हो,
कब टिका है भ्रम किसी का
तोड़ने ही काल आया !