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शुक्रवार, अक्टूबर 14

बूंद जैसे ओस की हो


बूंद जैसे ओस की हो

जल रही है ज्योति भीतर
तिमिर पर घनघोर छाया,
स्रोत है अमृत का सुखकर
किन्तु मन तृप्ति न पाया !

औषधि के घट भरे हैं
वृक्ष सारे जो हरे हैं,
किन्तु रोगी तन हुए हैं
क्षुधा को हरना न आया !

एक मीठी प्यास जागे
उस अलख की आस जागे,
बस यही कर्त्तव्य भूला
जग तू सारा छान आया !

चाँद पर पहुँचा है मानव
किन्तु पृथ्वी को उजाड़ा,
रौंद डाले हरे जंगल
मानवों ने कहर ढ़ाया !

जहाँ धन ही देवता हो
कौन खोजे आत्मा को,
जहाँ मन ही बना राजा
ठगे क्यों न वहाँ माया !

माना थोड़ा सुख मिला है
बूंद जैसे ओस की हो,
कब टिका है भ्रम किसी का
तोड़ने ही काल आया !