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शुक्रवार, सितंबर 27

हम

हम




पिछली सदी के उत्तरार्ध में
आते-आते हम आजाद हो गये थे
खुशहाली का सपना सच होने को था
 “धरा अपनी गगन अपना
जन्नत सा लगे वतन अपना”
जैसे गीत जुबानों पर चढ़े हुए थे  
 टुकड़ों में बंटकर ही सही
आजादी का घूंट पिया था
देश की हवा में पसीने की गंध थी
श्रम की नदी का कलरव..
 और थी मजबूत इरादों के फौलाद की चमक
 किसानों ने सोना उगाया कि
 मुरझाने न पाए एक भी जीवन !
पर...सदी बीतते बीतते हम लाचार हो गये
 तंगहाली का सपना अपना होने को था
‘भूख अपनी दर्द अपना
 बेगाना लगे वतन अपना’ 
जैसे सवाल मनों को सालते थे
 जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश के खानों में बंटे हुए हम
 देश की हवा में खून की गंध
 अलगाव वाद की नदी की चीख
 हिंसा का नृत्य और..
 भीड़ बेकाबू हो गयी है नई सदी में 
और किसान
अपनी ही जान बचा पाने में असमर्थ... !
 एक बार फिर
क्या नहीं गाने होंगे वही पुराने गीत
 श्रम से सजाना होगा इस गुलशन को
तब कहेगा हर भारतीय शान से
पूर्ण हुआ बापू का सपना
जन्नत सा लगे वतन अपना !