मन
मन कहानी पर पलता है
क्षण-प्रतिक्षण नयी-नयी बुनता है
अपनी रास न आये तो
औरों की लेकर चटखारे सुनता है !
अनादि काल से सुनते आ रहे हैं
बच्चे कहानियाँ
मन उनसे ही पोषित होता
कल्पना के नगर गढ़ता है
खो जाता भूल-भुलैयों में
सपनों में जगता है !
मन कहानियों का प्रेमी है
गढ़ लेता है नायक स्वयं ही
खलनायक भी चुनता है
फिर क्या हुआ ?
यही चलाता है उसे
सच से घबराता है !
ख़ुद ही सवाल उठाता
जवाब भी बन जाता है
मन में चलता है नाटक
परदा कभी न गिरता है !
शब्दों का घेरा इक
इर्द-गिर्द डाल लेता
उस पार क्या है
जान नहीं पाता
अपने ही महलों में
रात-दिन विचरता है
मन कहानी पर पलता है !