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सोमवार, अगस्त 26

मन

मन 


मन कहानी पर पलता है 

क्षण-प्रतिक्षण नयी-नयी बुनता है 

अपनी रास न आये तो

औरों की लेकर चटखारे सुनता है !


अनादि काल से सुनते आ रहे हैं 

बच्चे कहानियाँ 

मन उनसे ही पोषित होता 

कल्पना के नगर गढ़ता है 

खो जाता भूल-भुलैयों  में 

सपनों में जगता है !


मन कहानियों का प्रेमी है 

गढ़ लेता है नायक स्वयं ही 

खलनायक भी चुनता है 

फिर क्या हुआ ?

यही चलाता है उसे 

सच से घबराता है !


ख़ुद ही सवाल उठाता 

जवाब भी बन जाता है 

मन में चलता है नाटक 

परदा कभी न गिरता है !


शब्दों का घेरा इक 

इर्द-गिर्द डाल लेता 

उस पार क्या है 

जान नहीं पाता 

अपने ही महलों में 

रात-दिन विचरता है 

मन कहानी पर पलता है !


सोमवार, मार्च 4

पराधीनता

पराधीनता 


उस दिन वह बहुत रोयी थी, आँगन में बैठकर ज़ोर से आवाज़ निकालते हुए, जैसे कोई उसका दिल चीर कर ले जा रहा हो। शायद उसकी चीख में उन तमाम औरतों की आवाज़ भी मिली हुई थी जिन्हें सदियों से दबाया जाता रहा था। उनकी माएँ, दादियाँ, परदादियाँ और जानी-अनजानी दूर देशों की वे औरतें, जिन्हें अपने सपनों को जीने का हक़ नहीं दिया जाता है। उसने जिस पर इतना भरोसा किया था, जिसे अपना सर्वस्व माना था, जिसे ख़ुद को भुलाकर, टूटकर प्यार किया था। उसकी एक बात उसे किस कदर चुभ गई थी। जब उसने कहा था, यदि उसने उसकी इच्छा के विरुद्ध घर से बाहर कदम रखा तो वह उसे छोड़ कर चला जाएगा, इतना सुनते ही जैसे उसके सोचने समझने की शक्ति ही जाती रही थी। उसने यह भी नहीं सोचा, उसकी नौकरी है, घर है, बच्चा है, वह कैसे जा सकता है ? ये शब्द उसके मुख से निकले ही कैसे, बस यही बात उसे तीर की तरह चुभ रही थी।वह उसे चुप कराने भी आया, पर दर्द इतना बड़ा था कि समय ही उसका मलहम बन सकता था। कुछ देर बाद ही वह अपने आप ही शांत हो गई थी, उसके मन ने एक निर्णय ले लिया था, जैसे वह उसे छोड़ने की बात सोच सकता था, तो उसे भी अपना आश्रय कहीं और खोजना होगा, ईश्वर के अतिरिक्त कोई उसका आश्रय नहीं बन सकता था। शाम तक मन शांत हो गया और अगके दिन तक वह सामान्य भी हो गई थी, पर भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। वह जो आँख बंद करके उसके पीछे चली जा रही थी, नियति ने उसे जैसे चौंका दिया था। उस दिन के बाद वह अपने भीतर देखने लगी, जहॉं मोह के जाल बहुत घने थे, जिन्हें उसे काटना था। उसने मन ही मन कहा, आज से मैंने भी तुम्हें मुक्त किया।पहले वह उसकी एक क्षण की चुप्पी से घबरा जाती थी, जैसे उसकी जान उसमें अटकी थी। अब उसे अपने पैरों पर खड़ा होना था, ये पैर बाहर नहीं थे, मन में थे।मन जो पहले उसका इतना आश्रित बन चुका था, उसे स्वयं पर निर्भर करना था। कोई भी संबंध तभी दुख का कारण बनता है जब दो में से कोई एक हद से ज़्यादा दूसरे पर आश्रित हो। वह जैसे उसकी आँख़ों से जगत को देखती आयी थी। उसकी अपनी कोई पहचान ही नहीं थी। उसका एकमात्र काम था, उसके इशारों पर चलना, और यह भूमिका उसने ख़ुद चुनी थी, अपने पूरे होश-हवास में, वह इसे प्रेम की पराकाष्ठा समझती थी। पर अब सब कुछ बदल रहा था, आज सोचती है तो उसे लगता है, उस दिन का वह रुदन उसके नये जीवन का हास्य बनाकर आया था। अब वह उसके बिना भी मुस्कुराना सीखने लगी थी। उनके मध्य कोई कटुता नहीं थी, शायद संबंध परिपक्व हो रहे थे। शायद वे बड़े हो रहे थे। अपनी ख़ुशी के लिए किसी और पर निर्भर रहना उसकी पराधीनता स्वीकारना ही तो है। इसे प्रेम का नाम देना कितनी बड़ी ग़लतफ़हमी है। उसने यह बात सीख ली थी और अब अपने लिए छोटे-छोटे ही सही कुछ निर्णय ख़ुद लेना सीख रही थी।   


शुक्रवार, अगस्त 7

हर दिल की यही कहानी है

 हर दिल की यही कहानी है 


कुछ पाना है जग में आकर 

क्या पाना है यह ज्ञात नहीं, 

कुछ भरना है खाली मन में 

क्या भरना है आभास नहीं !

 

जो नाम कमाया व्यर्थ गया 

अब भी अपूर्णता खलती है, 

जो काम सधे पर्याप्त नहीं 

भीतर इच्छाएँ पलती हैं !

 

कर-कर के भी शमशान मिला

ना कर पाए जो पीड़ित है, 

माया मिली न ही राम मिला 

हर दिल की यही कहानी है !

 

था सार्स अभी कोरोना है 

सोयी मानवता जाग उठे, 

निज सुख खातिर दुःख न बांटें 

हर प्राण बचे जो, पाठ पढ़े !

 

क्यों भीतर झाँक नहीं देखा  

वह पूर्ण जहाँ का वासी है, 

वह दूजा न ही पराया है 

निज भाव स्रोत अविनासी है !


मंगलवार, मई 22

एक लघु कहानी



काश !

आज फिर मीता मुँह फुलाए बैठी थी. भाभी ने उसे स्कूल न जाने पर डाँटा था. आजकल उसे स्कूल जाने से ज्यादा सुंदर वस्त्र पहन कर शीशे में स्वयं को निहारना अच्छा लगने लगा था. उसने भाभी को भाई से कहते सुना था, मीता अब बड़ी हो रही है उसे इधर-उधर यूँही नहीं घूमना चाहिए. तब से भाभी की हर बात उसे बुरी लगने लगी थी. पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता तो वह क्या करे. माँ की आँखों की रौशनी कम होने लगी थी, उनकी एक आँख तो पहले से ही खराब थी अब दूसरी से भी कम दिखाई देता था. पिता अधिकतर समय के बाहर ही बिताते थे, वह एक छोटे से व्यापारी थे. घर की सारी जिम्मेदारी भाभी की थी. उनकी गोद में एक नन्हा सा पुत्र भी था पर वह सास-ससुर, दोनों देवरों और ननद की देखभाल भी ठीक से कर रही थी. यह उन दिनों की बात है जब भारत देश नया-नया आजाद हुआ था.

छमाही परीक्षा में जब वह पास नहीं हुई तो भाई ने उसे बुलाकर पूछा. मीता ने स्पष्ट कह दिया, अब वह आगे नहीं पढ़ेगी. चाहें तो उसका ब्याह करवा दें. अभी वह पन्द्रह वर्ष की भी नहीं हुई थी, आठवीं में ही पढ़ रही थी. भाई ने दफ्तर के एक सहकर्मी से बात की तो उसने कहा, मेरा भाई अभी-अभी नौकरी से लगा है, हम भी उसके लिए लड़की देख रहे हैं. बात पक्की हो गयी और विवाह हो गया. मीता के पांव जमीन पर नहीं पड़ते थे. पर पति का काम ऐसा था जिसमें उसे टूर पर जाना पड़ता था. एक महीना साथ रहकर वह बाहर चला गया, मीता की तबियत खराब रहने लगी. पहले-पहल उसे कुछ समझ में नहीं आया पर बाद में पता चला वह गर्भवती थी. वर्ष पूरा होने से पहले ही एक कमजोर और सांवली सी बालिका को उसने जन्म दिया. वह स्वयं गोरी-चिट्टी थी, पहले तो बच्चे की उसने चाहना ही नहीं की थी, उसे तो सज-धज कर घूमना था, अब इस सांवली बच्ची को देखकर उसे लगा, शायद अस्पताल में किसी अन्य के साथ यह बदल गयी है. अपनी उपेक्षा से दुखी होकर दिन भर रोती रहने  वाली उस बच्ची की देखभाल वह ठीक से नहीं कर पाती थी. समय बीतता रहा, एक पुत्र और हुआ, फिर पांच वर्षों के बाद दूसरा पुत्र, जो बचपन से ही किसी न किसी रोग का शिकार होता रहा. इसके बाद भाभी ने ही अस्पताल ले जाकर मीता का ऑपरेशन करवा दिया. अपना बचपन छिन जाने का दुःख था या कौन सा क्रोध था, वह अपना गुस्सा बच्चों पर निकालने लगी. उन्हें रगड़-रगड़ कर नहलाती जब तक कि उनका तन लाल न हो जाता. साबुन लगाने से कहीं त्वचा का रंग बदलता है पर इन्सान के मन को कौन समझ पाया है. बच्चे पढ़ाई में भी कमजोर ही रहे, माँ यदि स्वयं पढ़ी-लिखी या समझदार न हो तो बच्चों की सहायता नहीं कर सकती. हाईस्कूल में बेटी असफल रही तो उसे घर बैठा दिया, और प्राइवेट परीक्षा देने को कहा. डिग्री तक आगे की सभी पढ़ाई उसने घर से ही की.  उसी समय से उसके लिए लड़का भी देखा जाने लगा. पुत्र भी कालेज में आ गया था तभी एक जगह बात पक्की हो गयी और बिटिया को विदा कर दिया. ससुराल में बेटी बहुत खुश थी, उसके भी तीन बच्चे हुए पर पचास की होने से पहले ही वह स्वर्ग सिधार गयी. उसे अपने पिता और भाई के देहांत का दुःख सता रहा था जो दस वर्ष का बेटा और पत्नी को छोड़कर अचानक ही स्वर्ग सिधार गया था. मीता पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, पुत्र की मौत का गम न सह पाने के कारण ही शायद पतिदेव ने भी वही राह पकड़ ली थी. अभी उसके पति की मृत्यु हुए ज्यादा समय नहीं गुजरा था, कि पहले बेटी की असाध्य बीमारी और फिर मृत्यु का समाचार उसे मिला. उसे स्वयं पर आश्चर्य हो रहा था कि इतना दुःख पाने के बाद भी वह सही-सलामत है. बड़ी बहू, पोता, छोटा पुत्र और उसका परिवार साथ में था. वे सभी उसकी देखभाल करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते थे. उसका मन अब संसार से ऊबने लगा था और ज्यादा समय वह सत्संग में बिताने लगी थी. सुबह हो या शाम जब भी समय मिलता वह आस-पास होने वाले किसी न किसी कथा सम्मेलन में पहुंच जाती. इसी तरह एक दिन जीवन की शाम आ गयी थी. अस्वस्थता ने उसे अस्पताल पहुंचा दिया था. सफेद दीवारों वाले सूने कमरे में अकेले बिस्तर पर लेटे हुए उसे अपना बचपन याद आ रहा था. काश ! वह पढ़ाई के महत्व को समझती होती तो उसका जीवन कुछ और ही होता. उसके बच्चे भी शायद इसी कारण उच्च अध्ययन नहीं कर पाए. परिवारजनों को याद करते हुए और उन्हें मंगल कामनाएं देते हुए उसने आखें मूँद लीं.

शुक्रवार, अप्रैल 20

अनगाया गीत एक





अनगाया गीत एक 


हरेक के भीतर एक छुपी है अनकही कहानी
और छुपा है एक अनगाया गीत भी
एक निर्दोष, शीतल फुहार सी हँसी भी
कैद किसी गहरे गह्वर में
बाहर आना जो चाहती
आसमान को ढक ले
एक ऐसा विश्वास भी छुपा है
और... प्रेम का तो एक समुन्दर है तरंगित
किन्तु हरेक व्यस्त है कुछ न कुछ करने में
अथवा तो कुछ न कुछ बटोरने में..
कहानियाँ और गीत सबके हिस्से में नहीं आते
हँसना भी भला कितनों के लिए जरूरी है
प्रेम और विश्वास की भली कही
प्रेम पर भी किसी का विश्वास नहीं रहा अब तो
तो कौन खोजेगा उसे
जो भीतर छिपा है एक खजाने सा अनमोल
पर जिसका नहीं है कइयों की नजरों में कोई मोल !


बुधवार, जुलाई 12

गाना होगा अनगाया गीत

गाना होगा अनगाया गीत


गंध भी प्रतीक्षा करती है
उन नासापुटों की, जो उसे सराहें
प्रसाद भी प्रतीक्षा करता है
उन हाथों की, जो उसे स्वीकार लें
जो मिला उसे बांटना होगा
होने को आये जो हो जाना होगा
गाना होगा अनगाया गीत
लुटाना होगा वह कोष भीतर छुपा   
पलकों में बंद ख्वाबों को,
रात्रि का अँधकार नहीं सुबह का उजाला चाहिए
अंतर में भरी नर्माहट को शब्दों का सहारा चाहिए
गर्माहट जो सर्दियों की धूप गयी थी भर 
अलस जो भर गयी तपती दोपहर,
उन्हें उड़ेंलना होगा
बचपन में मिले सारे दुलार को
किस्सों में सुने परी के प्यार को
चाँद पर चरखा कातती बुढ़िया
रोती-हँसती सी जापानी गुड़िया
देख-देख कर जो मुस्कान की कैद हृदय में
उसे बिखराना होगा
बारिश की पहली-पहली बौछार में
भीगने का वह सहज आनंद
हृदय में लिए नहीं जाना होगा
इस जग ने कितना-कितना भर दिया है
मनस को उजागर कर दिया है
पिता की कहानियों का वह जादूगर
जो उगाता था सोने के पेड़ और चाँदी के फल
जीवन में पाए अनायास ही वे अमोल पल
अंतहीन वक्त की कोरी चादर पर
कुछ अमोल बूटे काढ़ने हैं
राह दिखाएँ भटके हुओं को
ऐसे कई और दीपक बालने हैं !

रविवार, जून 18

बूँद यहाँ हर नयना ढलकी


बूँद यहाँ हर नयना ढलकी


जाने क्या पाने की धुन है
हर दिल में बजती रुनझुन है,
किस आशा में दौड़ लगाते
क्षण भर की ही यह गुनगुन है !

दिवस-रात हम स्वप्न देखते
इक उधेड़बुन जगते-सोते,
चैन के दो पल भी न ढूँढे
जीवन बीता हँसते-रोते !

जाने कितनी बार मिला है
फूल यही हर बार खिला है,
स्रोत खोज लें इस सौरभ का
क्यों आखिर मन करे गिला है !

करुणा भरी कहानी सबकी
एक वेदना ही ज्यों छलकी,
सुख भी मिलता साथ दुखों के
बूँद यहाँ हर नयना ढलकी !  

खुला रहस्य, राज इक गहरा
रब पर लगा न कोई पहरा,
खुली आँख भी वह दिखता है
मिलने उससे जो भी ठहरा !

सोमवार, जुलाई 20

खुदा यहीं है !


खुदा यहीं है !

नहीं, कहीं नहीं जाना है
कुछ नहीं पाना है
गीत यही गाना है
खुदा यहीं है !
एक कदम भी जो बढ़ाया
एक अरमान भी जो जगाया
एक आँसू भी जो बहाया
झपकाई एक पलक भी
तो दूर निकल जायेंगे  
इतना सूक्ष्म है वह कि
सिवा उसके, उसकी जात में
कुछ भी नहीं है
खुदा यहीं है !
अब कोई गम तो दूर
ख़ुशी की बात भी बेगानी है
अब न कोई फसाना बचा
 न ही कोई कहानी है
वह जो होकर भी नहीं सा लगता है
अजब उसकी हर बयानी है
उसको जाना यह कहना भी
मुनासिब नहीं है
खुदा यहीं है !
अब कोई सफर न कोई मंजिल बाकी
दामन में बस यह एक पल  
और कुछ भी नहीं है
खुदा यहीं है !
नहीं चाहत किसी को समझाने की
 बेबूझ सी इस बात पर
करता कौन यकीं है
खुदा यहीं है !




शनिवार, जनवरी 31

एक इल्तजा


एक इल्तजा


दबा न रहे राख में दहकने दो अंगारा
मखमली सुर्ख चमकने दो अंगारा,
जल जाने दो हर सूं... कि निखर आएगा रूप
बरस जाने के बाद ज्यों खिल के निकले है धूप !

रहे न कोई पर्दा आज गिर जाने दो हर दीवार
कभी तो हो वह सामने... कभी तो हो दीदार
हट जाने दो हर शर्मोहया आज सामने आओ
फिर न मिलेगी यह रात अब न शरमाओ !

ओ खुदा ! अब न तुझे दूर से पुकारेंगे
तेरे हैं हम हक से तुझे निहारेंगे
अब निभाने होंगे वे सारे वादे तुझे
नहीं बहला सकेगा अब दूर से मुझे !

अजीब बात है यह वह ही लिखवाता है
खुद से मिलने के सिले किये जाता है,
‘मैं’ तो हूँ ही नहीं इस कहानी में
 बस थामी है कलम हाथ में, नादानी में !


शनिवार, नवंबर 29

मुट्ठी में सिमटी रेत ज्यों

मुट्ठी में सिमटी रेत ज्यों


हर कहानी है अधूरी
हर मन यहाँ कुछ खोजता,
रहता सदा अपूर्ण जग
मंजिल मिलेगी सोचता !

सीलें इधर सीलें उधर
पैबंद ही हैं हर तरफ,
पांव सिकोड़ें सिर खुले
धुंधले पड़ें जीवन हरफ !

मुट्ठी में सिमटी रेत ज्यों
थामें इसे, वह छूटता,
सोना नहीं पीतल था वह
हर भ्रम यहाँ है टूटता !

मिलती नहीं जग में कभी
जिस जीत की तलाश है
अपने ही भीतर झांक लें
खोलें उसे जो पाश है !


बुधवार, जुलाई 30

कितनी मधुर कहानी है


कितनी मधुर कहानी है


हर सुख की इक कीमत है
 दुःख पाकर ही चुकती है,
बस आनन्द निशुल्क बंट रहा  
मुक्ति यहाँ सहज मिलती है !

हर वस्तु की इक कीमत है
श्रम से ही पायी जाती है,
केवल खुदा ही मुफ्त यहाँ पर
नेमत सहज बरसती है !

हर सम्मान की इक कीमत है
पा अपमान चुकानी है,
बस अमान ही पाने योग्य
कितनी मधुर कहानी है !

हर लक्ष्य की इक कीमत है
खट-खट कर कोई पहुंचे ,
बस धैर्य मंजिल पर लाये   
 मिल जाती है बिन माँगे !