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सोमवार, अप्रैल 5

क्यों रहे मन घाट सूना


क्यों रहे मन घाट सूना


पकड़ छोड़ें, जकड़ छोड़ें 

 भीत सारी आज तोड़ें, 

बन्द है जो निर्झरी सी  

प्रीत की वह धार छोड़ें !


स्रोत जिसका कहाँ जाने 

कैद है दिल की गुफा में, 

कोई बिन भीगे रहे न 

आज तो हर बाँध तोड़ें !


रंग कुदरत ने बिखेरे 

क्यों रहे मन घाट सूना,

बह रही जब मदिर ख़ुशबू

बहा आँसूं हाथ जोड़ें !


जो मिले, भीगे, तरल हो 

टूट जाये हर कगार,  

पिघल जाये दिल यह पाहन 

भेद का हर रूप छोड़ें !


 

गुरुवार, मार्च 14

पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है


पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है


एक निर्झरी सी भावों की
जाने कहाँ से फूटी भीतर,
हटा पत्थरों की सीमा को
उमड़े ज्यों जलधार निरंतर !

जाने कहाँ छिपा रखा था
पाहन सा दिल भारी तो था,
जाने किसकी करे प्रतीक्षा
आखिर एक पुजारी तो था !

आज उमड़ ही आया अभिनव
इक सैलाब विमल अविरल सा
डूबे जिसमें संशय सारे
ज्यों संगम का तट निर्मल सा !

मीलों तक अब बिछा मोद है
सहज हुआ हर पल मिलता है,
जैसे नभ में तिरते पंछी
पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है !

एक ही जीवन, एक ऊर्जा
विष भी वही, वही है अमृत,
मिल जाती पगडंडी सच की
नहीं सुहाए जिसको अनृत !