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गुरुवार, मार्च 14

पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है


पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है


एक निर्झरी सी भावों की
जाने कहाँ से फूटी भीतर,
हटा पत्थरों की सीमा को
उमड़े ज्यों जलधार निरंतर !

जाने कहाँ छिपा रखा था
पाहन सा दिल भारी तो था,
जाने किसकी करे प्रतीक्षा
आखिर एक पुजारी तो था !

आज उमड़ ही आया अभिनव
इक सैलाब विमल अविरल सा
डूबे जिसमें संशय सारे
ज्यों संगम का तट निर्मल सा !

मीलों तक अब बिछा मोद है
सहज हुआ हर पल मिलता है,
जैसे नभ में तिरते पंछी
पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है !

एक ही जीवन, एक ऊर्जा
विष भी वही, वही है अमृत,
मिल जाती पगडंडी सच की
नहीं सुहाए जिसको अनृत !