प्रीत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
प्रीत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, सितंबर 10

बहा करे संवाद की धार

बहा करे संवाद की धार 

टूट गई वह डोर, बँधे थे 

जिसमें मन के मनके सारे, 

बिखर गये कई छोर, अति हैं  

प्यारे से ये रिश्ते सारे !


गिरा धरा पर पेड़ प्रीत का 

नीड़ सजे जिस पर थे सुंदर, 

 शाखा छोड़  उड़े सब पंछी

आयी थी ऐसी एक सहर !


 अब उनकी यादों का सुंदर 

चाहे तो इक कमल खिला लें, 

मिलजुल कर आपस में हम सब 

 मधुर गीत कुछ नये बना लें !


बहा करे संवाद की धार 

चुप्पी सबके दिल को खलती, 

जुड़े हुए हैं मनके अब भी 

चाहे डोरी नज़र न आती !


कभी कोई प्रियजन सदा के लिए विदा ले लेता है तो परिवार में एक शून्यता सी छा जाती है।

इसी भाव को व्यक्त करने का प्रयास इस रचना में किया गया है।


रविवार, अगस्त 18

प्यार का राज यही



प्यार का  राज यही


लिखना-पढ़ना, हँसना-रोना  इतना ही तो आता था 

 आँखों से बतियाना लेकिन तुम्हीं ने सिखला दिया 


ज़िंदगी का यह सफ़र धूप में जब-जब कटा 

बदलियों का एक छाता तुम्हीं ने लगा दिया


कुछ कहें दिलों की दुनिया की कुछ सुनें 

प्यार का  राज यही, तुम्हीं ने बता दिया 


दिल अगर उदास हो देख लो आईना 

प्रीत का चंद्रमा तुम्हीं ने झलका दिया


प्रेम की बयार भी जब अभी बही न थी 

ह्रदय में गुलाब इक तुम्हीं ने उगा दिया


बुधवार, दिसंबर 27

मन कहाँ ख़ाली हुआ है

मन कहाँ ख़ाली हुआ है 


यह ग़लत है, वह ग़लत है 

ग़लत है सारा जहाँ, 

बस सही हम जा रहे, यह 

राह रोके क्यों खड़ा ?


क्यों नहीं उड़ते गगन में 

देर अब किस बात की, 

थी तैयारी इस पल की 

बात क्या फिर राज की !


ढेर बोझा है दिलों पर 

अनगिनत शिकवे छिपे, 

मन कहाँ ख़ाली हुआ है 

तीर कितने हैं बिंधे !


आग भी जलती, वहीं है  

प्रीत का दरिया छिपा, 

जाग कोई देखता, कब  

तमस में मन आ घिरा !


सोमवार, जुलाई 17

एक बांसुरी की सरगम दिल

एक बांसुरी की सरगम दिल 


बस कशमकश है ज़िंदगी, या 

प्रीत रागिनी मधुर बज रही, 

क्यों इसको संघर्ष बनाते 

निशदिन रस की धार बह रही !


सुरमई साँझ, केसरिया दिन 

लपटों में घिर-घिर जाते क्यों, 

एक बांसुरी की सरगम दिल 

व्यर्थ शोर में बदल रहा ज्यों !


प्रेम गुज़ारिश, एक बंदगी 

फ़रमानों की भेंट चढ़ गया, 

जहां सरसता उग सकती थी 

अरमानों का रक्त बह गया !


चंद खनकते सिक्कों आगे 

दिल का दर्द न पड़ा दिखायी, 

अहंकार की भाषा जीती 

सदा प्रीत की ही रुसवाई !


लेकिन आख़िर कब तक बोलो 

जीवन दुर्दम बोझ सहेगा, 

तोड़ बंधनों की सीमाएँ 

नव अंकुर सा उमग बहेगा !


मंगलवार, जुलाई 4

गुरु ज्ञान से

गुरु ज्ञान से


जग जाये वह तर ही जाये 

रग-रग में शुभ ज्योति जलाये, 

धार प्रीत की सदा बरसती 

बस उस ओर नज़र ले जाये !


काया स्वस्थ हृदय आनंदित 

केतन भरे रहें भंडारे, 

हर प्राणी हित स्वस्ति प्रार्थना 

निज श्रम से क़िस्मत संवारें 


अधरों पर हो नाम उसी का

नित्य नियम उर बाती बालें, 

कान्हा वंशी  डमरू शंकर 

सर्वजनों हित प्रेम सँभाले 


भेद मिटे अपनों ग़ैरों का 

काम सभी के सब आ जायें, 

जीवन यह आना-जाना है 

जो पाया है यहीं लुटायें !


शनिवार, अप्रैल 1

आनंदित है कण-कण जड़ का

आनंदित है कण-कण जड़ का 


निशदिन मेघ प्रीत का तेरी 

बरस रहा है झर-झर झर-झर, 

ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ 

दसों दिशाओं  से नित आकर !


जिस पल बनी पदार्थ ऊर्जा 

नवल सृष्टि का जन्म हुआ था,

रूप अनंत धरे जाती है 

मानो कोई खेल चल रहा !


आनंदित है कण-कण जड़ का 

चेतन इसमें छिपा हुआ है, 

कुदरत का सौंदर्य अनूठा 

मधुरिम लय में बँधा हुआ है 


अंतर्मन में गुँथे हुए ज्यों 

श्रद्धा, प्रेम आस्था के स्वर, 

तू ही हमें राह दिखलाता 

खोज निकालें इनको भीतर !


सुख दे खुद  के निकट बुलाए 

दुःख दे उर में विरह जगाए, 

सहज बने कैसे यह जीवन 

पल-पल इसका मार्ग दिखाए !


कैसे करें शुक्रिया तेरा 

तुझसे ही अस्तित्त्व टिका है, 

शांति, प्रेम, सुख सागर बनता 

जो दिल तेरे लिए बिका है !



रविवार, फ़रवरी 26

तू सबब है यहाँ

 
तू सबब है यहाँ

हर घड़ी ख़ास है 

तू मेरे पास है, 

भर रहा नित नयी 

हृदय में आस है !


तुझको देखा नहीं 

पर बता तो सही, 

प्रीत की धार यह 

बिन मिले ही बही !


तू सबब है यहाँ 

जगत सजदा करे, 

हे  माया पति 

रच दे पल में जहाँ, 


कोई जाने नहीं 

तू ही सबमें छिपा, 

खुद को पा कर बँधा 

नित छुड़ा ही रहा !


मन हुआ क़ैद हैं 

अपने ही जाल में, 

कैसे छोड़ेगा तू 

हमें निज हाल में !


इल्म देता हुआ 

सदा रस्ता दिखा, 

ले चले है हमें

 प्यारा रहबर ख़ुदा !

सोमवार, फ़रवरी 20

ज्वाला कोई जले निरंतर

ज्वाला कोई जले निरंतर
बरस रहा है कोई अविरत
झर-झर झर-झर, झर-झर झर-झर
भीग रहा कब कोई पागल 
ढूँढे जाता सरवर, पोखर !

प्रीत गगरिया छलक रही है
 युगों-युगों से सर-सर सर-सर,
प्यासे कंठ न पीते लेकिन
 अकुलाये से खोजें निर्झर !

ज्वाला कोई जले निरंतर
बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम,
राह टटोले नहीं मिले पर  
अंधकार में टकराते हम !

शब्दों में वह नहीं समाये
अंतर को ही अम्बर कर लें,
कैसे जग को उसे दिखाएँ
रोम-रोम में जिसको भर लें !

गाए रुन-झुन, रिन-झिन, निशदिन
हँसता हिम शिखरों के जैसा,
रत्ती भर भी जगह न छोड़े
बसा पुष्प में सौरभ जैसा !

रग-रग रेशा-रेशा पुलकित
कण-कण गीत उसी के गाये  ,
रिसता मधु सागर के जैसा
श्वास-श्वास में वही समाये !


शनिवार, जनवरी 7

प्रेम स्वप्न बन कर पलता है



प्रेम स्वप्न बन कर पलता है

एक बार फिर देखें मुड़कर

कितनी राह चले आये हम,

कब थामा था हाथ हाथ में 

कितनी चाह भरे भीतर मन !


छोटा सा संसार  बसाया

कितने ही परिवर्तन देखे,

कितने सफर, मंजिलें कितनी

कितने ही अभिनन्दन देखे !


बरसों का है साथ अनोखा

लगे आज भी नया-नया सा,

है अनंत जीवन यह अद्भुत 

राज न कोई जाने जिसका !


अभी सफर यह शुरू हुआ है 

अब तलक भूमिका ही बाँधी ,

जीवन नित नव द्वार खोलता

व्यर्थ यहाँ सीमा बाँधी थी !


पाया ही पाया है अब तक 

प्रीत लुटाने की रुत आयी,

जगी ऊर्जा सुप्त पड़ी, कुछ 

कर दिखलाने की रुत आयी !


हर पल कोई साया बनकर 

सदा साथ ही जो चलता है,

प्रेम हमारा अनुपम रक्षक

प्रेम स्वप्न बन कर पलता है !


उन सभी को समर्पित जिनके विवाह की वर्षगाँठ इस वर्ष है


गुरुवार, अगस्त 25

कौन फूल खिलने से रोके

कौन फूल खिलने से रोके 
  
बहे न दिल से धार प्रीत की
जाने कितने पाहन रोकें, 
हरियाली उग सकती थी जब 
कौन फूल खिलने से रोके !

सहज स्पंदित भाव क्यों उठते  
तर्कों के तट बांध लिए जब,
घुट कर रह जाती जब करुणा  
कैसे जगे ख़ुशी भीतर तब !

एक बीज धरती में बोते 
बना हजार हमें लौटाती,
इक मुस्कान हृदय से उपजी 
अनगिन दिल के शूल मिटाती !

बहना ही होगा मन को नित 
अंतर का सब प्यार घोलकर, 
भरते रहना होगा घट को 
उस अनाम का नाम बोलकर !

 उसी एक का प्रेम जगत में 
लाखों के अंतर  में झलके,
जो दिल इसमें भीग गया हो 
पा जाता है खुद को उसमें !

गुरुवार, जनवरी 20

हर इक राह सुगम हो जाए

हर इक राह सुगम हो जाए 


हर कंटक तेरे पथ का मैं 

चुन लूँ अपने इन हाथों से, 

हर इक राह सुगम हो जाए 

दुआ दे रहा है मन कब से !


अनजाने में पीड़ा बाँटी 

खुद से ही दूरी थी शायद, 

अब जबसे  यह भेद खुला है 

पल-पल पाती भेज रहा मन !


दुःख में  सिकुड़ गया अंतर्मन 

शोक लहर जिससे बहती है, 

पाला पड़ा हुआ धरती  पर 

सूर्य किरण झट हर लेती है  !


प्रीत उजाला जब प्रकटेगा 

खो जाएगा हर विषाद तब, 

उसके अनुपम उजियाले में 

झलकेंगे पाहन बन शंकर !


सोमवार, अक्टूबर 11

भू से लेकर अंतरिक्ष तक


भू से लेकर अंतरिक्ष तक

कोई अपनों से भी अपना 
निशदिन रहता संग हमारे,
मन जिसको भुला-भुला देता 
जीवन की आपाधापी में !

कोमल परस, पुकार मधुर सी 
अंतर पर अधिकार जताता,
नजर फेर लें घिरे मोह में 
प्रीत सिंधु सनेह बरसाता !

साया बनकर साथ सदा है 
नेह सँदेसे भेजे प्रतिपल,
विरहन प्यास जगाये उर में 
बजती जैसे मधुरिम कलकल  ! 

अखिल विश्व का स्वामी खुद ही 
रुनझुन स्वर से प्रकट हो रहा,
भू से लेकर अंतरिक्ष तक
कैसा अद्भुत नाद गूँजता ! 

कान लगाओ, सुनो जागकर 
वसुधा में अंकुर गाते हैं,
सागर की उत्ताल तरंगे 
नदियों के भंवर भाते हैं !

जागें नैना मन भी जागे
चेतनता कण-कण से फूटे,
मेधा जागे, स्वर प्रज्ञा के 
हर प्रमाद अंतर से हर ले ! 

शनिवार, जुलाई 3

दिल को अपने क्यों नहीं राधा करें

दिल को अपने क्यों नहीं राधा करें


जिंदगी ने नेमतें दी हैं हजारों 

आज उसका शुक्रिया दिल से करें, 

चंद लम्हे ही सदा हैं पास अपने 

क्यों न इनसे गीत खुशियों के झरें !


दिल खुदा का आशियाना है सदा से 

ठहर उसमें दर्द हर रुखसत करें, 

आसमां हो छत धरा आंगन बने 

इस तरह जीने का भी जज्बा भरें !


वह बरसता हर घड़ी जब प्रीत बन 

मन को अपने क्यों नहीं राधा करें, 

दूर जाना भी, बुलाना भी नहीं 

दिल के भीतर साँवरे नर्तन करें !


झुक गया यह सिर जहाँ भी सजदे में 

वह वही है, क्यों उसे ढूंढा  करें, 

मांगना है जो भी उससे माँग लें 

मांगने में भी भला क्यों दिल डरें !


उर खिलेगा जब उठेगी चाह उसकी 

फूल बगिया में अनेकों नित खिलें, 

शब्द का क्या काम जब दिल हो खुला 

भाव उड़के सुरभि सम महका करें !

 

सोमवार, मई 31

प्रीत बिना यह जग सूना है

प्रीत बिना यह जग सूना  है 


प्रीत जगे जिस घट अंतर में 

वही कुसुम सा विहँसे खिल के, 

यह वरदान उसी से मिलता 

जो माधव मधुर सलोना है !


प्रीत घटे वसंत छा जाता 

उपवन अंतर का महकाता, 

भावों की सरिता को भी तो 

कल-कल छल-छल नित बहना है !

 

जहाँ प्रेम का पुष्प न खिलता 

घट वह मरुथल सा बन जाता, 

शुष्क हृदय में  बसे न श्यामा 

नित कलरव वहाँ गुँजाना है !


प्रीत से ही धरा गतिमय यह 

पंछी, पादप, पशु का जीवन, 

प्रेम से ही होता है सिंचन 

जगती को नूतन होना है !



 

सोमवार, अप्रैल 5

क्यों रहे मन घाट सूना


क्यों रहे मन घाट सूना


पकड़ छोड़ें, जकड़ छोड़ें 

 भीत सारी आज तोड़ें, 

बन्द है जो निर्झरी सी  

प्रीत की वह धार छोड़ें !


स्रोत जिसका कहाँ जाने 

कैद है दिल की गुफा में, 

कोई बिन भीगे रहे न 

आज तो हर बाँध तोड़ें !


रंग कुदरत ने बिखेरे 

क्यों रहे मन घाट सूना,

बह रही जब मदिर ख़ुशबू

बहा आँसूं हाथ जोड़ें !


जो मिले, भीगे, तरल हो 

टूट जाये हर कगार,  

पिघल जाये दिल यह पाहन 

भेद का हर रूप छोड़ें !