महाकुम्भ के समापन पर
कल-कल छल-छल बहती गंगा
यमुना जिसमें आ कर मिलती,
यही त्रिवेणी है प्रयाग की
छुपी है जिसमें सरस्वती !
इस अति पावन तीर्थराज में
कुम्भ पर्व की शोभा न्यारी,
हरिद्वार, नासिक, प्रयाग में
तब उज्जैन की आती बारी !
देव उतर आते हैं भू पर
सूर्य, चन्द्र, गुरु भी मिलते,
घुल जाता है मानो अमृत
लाखों अंतर भाव से खिलते !
सूर्य मकर राशि में होता
दिग दिगांतर हुए प्रफ्फुलित,
आए दूर से जन सैलाब
श्रद्धा के हों दीप प्रज्ज्वलित !
भगवद गाथा संत सुनाते
अद्भुत साधुजन आते हैं,
नव इतिहास गढ़ा जाता है
मिल कर सारे कुम्भ नहाते !
एक अजूबा है धरती का
भारत भू का पर्व निराला,
नागा साधुओं के अखाड़े
इक तिलस्म सा ज्यों रच डाला