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बुधवार, फ़रवरी 1

उड़ान भरता है प्रेम

उड़ान भरता है प्रेम

जैसे चन्द्रमा की ललक, उछाल देती है सागर को
ज्वार चढ़ता है जल तरंगों में
और स्वतः ही लौट आता है
अधूरे मिलन की कसक लिये...
वैसे ही मेरा मन ओ प्रियतम !
खिंचता है तेरी ओर
पर हर बार और प्यासा होकर
लौट आता है....सिमट आता है स्वयं में
भाटा लौटा न लाए अगर ज्वार को
क्या तहस-नहस न कर देगी लहरें
तोड़ती हुई सारी दीवारों को...

जन्म और मृत्यु दोनों पर टिकी है सृष्टि
मिलन और विरह दोनों पंख लगा कर
उड़ान भरता है प्रेम
ऊँचे आकाश में....

जब थाप पड़ती है
नृत्य की  सधे हुए कदमों से
वही आगे गए कदम पीछे भी लौटते हैं
गति, लय युक्त हो तभी मोहती है
आरोह के बाद अवरोह जरूरी है
वैसे ही तू मिल कर बिछड़ता है...पर पुनः मिलने के लिये !