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शनिवार, अक्टूबर 1

आतुर है सूरज उगने को





आतुर है सूरज उगने को

श्वासें महकें  अंतर चहके 
पल पल नव गीत बजें भीतर,
जीवन जो भी भेंट दे रहा
स्वीकारें उत्साहित  होकर !

कभी-कभी ढक गया उजाला
कुछ भी नजर नहीं आता है, 
खुशियों के पीछे-पीछे ही
गम का दूत चला आता है !

लेकिन बादल कब तक आखिर
अंशुमान को ढक पाए हैं,
कब तक पर्वत रोक सकेंगे 
तूफान से टकराए हैं !

चलते जाना है रस्ते पर, 
कंटकमय या पथरीला है,
मंजिल दूर नहीं है साथी
अनथक थोड़ा सा चलना है !

खाली करके मन में भर लें, 
नए जोश औ' नए होश को,
उपवन बन जाये मन आंगन,
आतुर है सूरज उगने को !

हर उत्सव संदेशा लाया, 
थम कर थोड़ा भीतर झाँकें 
दुःख के पीछे छिपा हुआ जो, 
सुख के उस दरिया को पाके  I



रविवार, अप्रैल 18

श्वासें

श्वासें 


गा रही हैं नाम  

जिसे हम सुन नहीं पाते 

या कर देते हैं सुनकर भी अनसुना 

श्वासें कीमती हैं कितनी 

यह बात सिखा रहा है एक वायरस आज 

चेतना के समंदर में उठती-गिरती लहरों सी 

ही तो हैं ये श्वासें 

उथली और छोटी होंगी तो 

नाप नहीं पाएंगी गहराई उसकी 

तीव्र और कंपित होंगी 

तो मन को भयभीत बनाएंगी 

गहरा करें इन्हें 

उस परम की ऊर्जा भरें उनमें 

यही प्राणों का आयाम हमें मुक्त करता है

 भर देती हैं शक्ति से जब भीतर आती हैं 

बाहर जाती हुई समर्पित हो जाती हैं 

‘सो’ कहकर चेतना को भरतीं 

‘हम’ में स्वयं को अर्पित करतीं 

इन्हीं श्वासों का आवागमन ही जीवन है 

इनसे ही चलता मन है 

श्वासें हल्की और धीमी हो जाएँ 

एक लय में पिरो ली जाएँ 

तो टिक जाता है मन का अश्व भी  

और चैतन्य उसमें झलक जाता है !