अम्बर भी है बातें करता
एक सहज उल्लास जगायें
भीतर इक विश्वास उगायें,
प्रेम लहर अंतर को धोए
कैसे वह प्रियतम छिप पाए !
यहीं कहीं है देख न पाते
व्यर्थ विरह के नगमे गाते,
यूँ ही हैं हम आँखें मूंदें
सम्मुख है जो नजर न आये !
वह रसधार बही जाती है
सूखी डाली हरी हुई है,
ओढ़ी थी जो घोर कालिमा
हटा आवरण ज्योति खिली है !
भीतर सरवर के सोते हैं
एक फसल उगी आती है,
चट्टानों को भेद शीघ्र ही
कल-कल स्वर से भर जाती है !
कैसा अनुपम प्रेम बरसता
कुदरत के कण-कण से झरता,
हवा कहे कुछ सहलाती जब
अम्बर भी है बातें करता !