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गुरुवार, मई 9

अम्बर भी है बातें करता


अम्बर भी है बातें करता


एक सहज उल्लास जगायें
भीतर इक विश्वास उगायें,
प्रेम लहर अंतर को धोए
कैसे वह प्रियतम छिप पाए !

यहीं कहीं है देख न पाते  
व्यर्थ विरह के नगमे गाते,
यूँ ही हैं हम आँखें मूंदें
सम्मुख है जो नजर न आये !

वह रसधार बही जाती है
सूखी डाली हरी हुई है,
ओढ़ी थी जो घोर कालिमा
हटा आवरण ज्योति खिली है !

भीतर सरवर के सोते हैं
एक फसल उगी आती है,
चट्टानों को भेद शीघ्र ही
कल-कल स्वर से भर जाती है !

कैसा अनुपम प्रेम बरसता
कुदरत के कण-कण से झरता,
हवा कहे कुछ सहलाती जब
अम्बर भी है बातें करता !