अम्बर भी है बातें करता
एक सहज उल्लास जगायें
भीतर इक विश्वास उगायें,
प्रेम लहर अंतर को धोए
कैसे वह प्रियतम छिप पाए !
यहीं कहीं है देख न पाते
व्यर्थ विरह के नगमे गाते,
यूँ ही हैं हम आँखें मूंदें
सम्मुख है जो नजर न आये !
वह रसधार बही जाती है
सूखी डाली हरी हुई है,
ओढ़ी थी जो घोर कालिमा
हटा आवरण ज्योति खिली है !
भीतर सरवर के सोते हैं
एक फसल उगी आती है,
चट्टानों को भेद शीघ्र ही
कल-कल स्वर से भर जाती है !
कैसा अनुपम प्रेम बरसता
कुदरत के कण-कण से झरता,
हवा कहे कुछ सहलाती जब
अम्बर भी है बातें करता !
बहुत सुन्दर उल्लासमयी अभिव्यक्ति...आभार
जवाब देंहटाएं्बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंकैसा अनुपम प्रेम बरसता
जवाब देंहटाएंकुदरत के कण-कण से झरता,
हवा कहे कुछ सहलाती जब
अम्बर भी है बातें करता !
बहुत सही ..
कैसा अनुपम प्रेम बरसता
जवाब देंहटाएंकुदरत के कण-कण से झरता,
हवा कहे कुछ सहलाती जब
अम्बर भी है बातें करता ...!प्रकृति का सुन्दर् चितरण
प्रकृति की सुंदरअभिव्यति!!
जवाब देंहटाएंयहीं कहीं है देख न पाते
जवाब देंहटाएंव्यर्थ विरह के नगमे गाते,
यूँ ही हैं हम आँखें मूंदें
सम्मुख है जो नजर न आये !
बहुत बढ़िया...
सादर
अनु
प्रकृति का अनुपम भाव उभारती रचना !
जवाब देंहटाएंडैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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बहुत सुन्दर और गहन.........
जवाब देंहटाएंकैलाश जी, कालीपद जी, वन्दना जी, अनु जी, रंजना जी, संगीता जी, माहेश्वरी जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंअनुपम
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