गुरुवार, अगस्त 18

वह आज भी प्रतीक्षा रत है...


वह आज भी प्रतीक्षा रत है...

उसने दिये हमें झरोखे ताकि 
झांक सकें हम सुंदर सृष्टि
और घर लौट कर उससे कहें...

घर की सुरक्षा में
जैसे पिता देता है ताकत बच्चे को
दिन भर घूमकर आए और
शाम को विश्रांति पाए
कुछ कहे, कुछ सुने
विशुद्ध आनंद का लेन-देन हो
और पाएँ सब साहचर्य का सुख

पर हम तो बाहर गए तो
रह गए बाहर के ही होकर...
भीतर का रास्ता ही भूल गए
साधन को ही साध्य बना डाला हमने
सुख ढूँढने लगे उनमें
और यह भी नहीं पता कि जाना है कहाँ
पाना है क्या.. भूल ही गए
कि... घर भी लौटना है
वह प्रतीक्षा रत है... आज भी...  

मंगलवार, अगस्त 16

जन्म दिवस पर


जन्म दिवस पर

कैलेंडर ने याद दिलाया
उम्र की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते
एक कदम है और बढ़ाया !

जाकर जब दर्पण में देखा
बीता बरस भी छोड़ गया है
मुखड़े पर इक अपनी रेखा !

नयन मूंद जब भीतर झाँका
वही पुराने बचपन वाले
मुस्काकर उस “मैं” ने ताका !

कल की ही तो बात है जैसे
कॉलेज से जब घर लौटा था
दिए पिता ने फ़ीस के पैसे !

घर से दूरी, विरह का दुःख
भीतर बिलकुल ही ताजा है 
नई-नई नौकरी का सुख !

जब नन्हे को हाथ थमाया
कैसे भूलूं वह मुस्कान
वह क्रन्दन भी दिल में समाया ! 

रविवार, अगस्त 14

आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ


पन्द्रह अगस्त २०११

पुण्य भूमि, हे भारत माता  
दिल अपना मुस्काता, गाता
स्वतंत्रता दिवस मनाने लो
एक हुजूम चला आता !

जग को मुक्ति का ज्ञान दिया
तूने ही यह वरदान दिया,
पर आज वही मानव तेरी
आजादी का जश्न मनाता !

तेरे ही आंगन में हे माँ
गूंजी थी ऋषियों की वाणी,
तेरे सपूत थे महा वीर
कर्मठ, उत्साही व दानी !

फिर समय की ऐसी मार पड़ी
वे सुख मदिरा में मत्त हुए,
तेरे सम्मान को रख गिरवी
गैरों से बंधे, परास्त हुए !

लेकिन चिंगारी भीतर थी
क्रांति का बिगुल बजाया था,
सुलगी पहले फिर भड़की थी
सुंदर इक स्वप्न दिखाया था !

जाने कितनों का रक्त बहा
कितनी माँओं का दिल रोया,
कितने कवियों ने गीत लिखे
जेलों में गए, चैन खोया !

बापू, नेहरु, सुभाष, तिलक
आजाद, भगत, ऊधम भी लड़े,
ली करवट भारत जनता ने
थे सेनानी जांबाज बड़े !

लहराया था परचम प्यारा
छूने फिर नीले अम्बर को,
तीनों रंगों में सजा चक्र
प्रेरित करता जो चलने को !

जनगणमन था फिर गूंज उठा
कोटि-कोटि जन हर्षाये,
आज उसी की याद लिए
हम भारतवासी हैं आए !

तेरे चिरकाल ऋणी हैं हम
ममतामयी ओ कल्याणी माँ,
तेरे सुंदर नव रूपों पर
हम जाते हैं बलिहारी माँ !

तेरी महिमा का गान करें
हैं शब्द कहाँ ऐसे उर में,
तेरी आभा की ज्योति में
मिल गाते हैं हम सब सुर में !

माना राहें दुश्वार हुईं
एक उदासी सी है छाई,
लेकिन भीतर जोश भरा है
मंजिल की धुन रहे समाई !

तू अरूप है भारत माता
रूप झलकता है जन-जन में,
तू ही लहराती फसलों में
तू ही मुस्काती हर मन में !


भारत का हर जन तेरा ही
तुझसे ही उसका हर नाता,
तेरे कारण हम एक हुए
तेरा आँचल है हमें भाता !

हर प्रान्त तेरा खिल-खिल जाये
शहर-शहर गाँव मुस्काए,
तेरी गलियों में मस्ती हो
बाजारों में रौनक छाये !

द्वार-द्वार पर सजे रंगोली
हर छत पर ध्वजा लहराए,
हर बच्चे में जोश भरा हो
हर स्कूल तराने गाए !

हवा में भी हो एक सुगन्धि
लोगों का मन पिघले अब तो,
अपनी माँ को तो न सताएं
जश्नेआजादी मनेगा तब तो ! 

शुक्रवार, अगस्त 12

राखी एक अनूठा उत्सव

राखी एक अनूठा उत्सव

बरस-बरस गयी कृपा देव की
श्रावण मास पूर्ण हुआ जब,
लेने लगा होड़ बदली से
पूर्ण चन्द्र खिल आया नभ पर !

भारत की पुण्य भूमि पर
एक अनूठा उत्सव आया,
प्रेम ही जिनका आदि अंत है
सम्बन्धों को निकटतम लाया !

वर्ष भर का भाव छिपा जो
भीतर गहन हुआ अब प्रकटा,
बहन ने बांधा रक्षा बंधन
भाई का भी दिल भर आया !

आशीषें हैं और दुआएँ
तिलक लगाती दे मिष्ठान,
अनगिन खुशियाँ बहना पाए
बांधें राखी सँग मुस्कान !

बहन का दिल हुआ गर्वीला
मन ही मन वारी है जाती,
कितनीं यादें उर में आतीं
देख भाई का ढंग हठीला !

जो कुछ पाया है भाई से
धीरे से मस्तक से लगाती,
अपने अंतरतम की ऊष्मा
बिन बोले चुपचाप लुटाती !

गुरुवार, अगस्त 11

ऐसा कोई क्यों करेगा


लन्दन के दंगों को किसी तरह रोका गया तो हिंसा की आग ब्रिटेन के दूसरे शहरों में फ़ैल रही है. ईश्वर की बनाई इस सुंदर दुनिया के किसी भी कोने में घटी हिंसा की वारदातें एक स्वच्छ सतह पर काले धब्बे की तरह चुभती हैं और भीतर कई सवालों का जन्म होता है....


ऐसा कोई क्यों करेगा 

वहशी, कुछ दरिंदे, पागल
हाथ में मौत का सामान लिए
दाखिल होते हैं लोगों के हुजूम में
और देखते-देखते भडक उठते हैं शोले
आतंक फ़ैल जाता है,
कुचल दिए जाते हैं हंसते-खेलते जीवन...
अमानवीय कृत्य करने वाले वे भी
जन्मे तो थे इसी धरती पर
खेले थे वे भी किसी के आंगन में
हो सकता है न मिली हो उन्हें माँ की गोद
या स्नेह पिता का
कुंवारी माँ की सन्तान हों
या अलग हो गए हों उनके जनक
उनके जन्म के पूर्व
या फिर पले हों वे छोटी सी आयु से
अकेले सड़कों पर
या बंद घर में, कम्प्यूटर पर गेम खेलते
जहां खून के छींटे पड़ने पर मिलते हैं पॉईंटस्
या छोड़ दिए गए हों
माता-पिता के काम पर जाने के बाद अकेले
टीवी पर हिंसा के दृश्य देख-देख हुए हों बड़े
गोली चलाना सीखा हो शायद पहली बार
 किसी खिलौना बंदूक से
जो माँ-बाप ले आए हों उनके दूसरे जन्म दिन पर
और फिर हर वर्ष एक नई पिस्तौल
पूर्व से अधिक विकसित
हिंसा की ट्रेनिंग ले ली हो उन्होंने
गली-मोहल्लों में
बम बनाना, आगजनी सीखी हो दादा लोगों के साये में
या फिर सताया गया हो उनका कोई परिचित (निर्दोष)
पुलिस के हाथों....
वे देखना चाहते हों असली आग की लपटें
लोगों के चेहरे पर भय
स्क्रीन पर होते दृश्य अब उत्तेजित न कर पाते हों उन्हें
या फिर याद आए हों उन्हें हिंसा के वे कारनामे
जिन्हें करके अमर हो गए कुछ सिरफिरे
कैसे विकृत हुआ होगा उनके मस्तिष्क
जिनमे हिंसा का जहर भरा गया होगा धीरे-धीरे
मरती गयी होगी उनकी आत्मा
दफन हो गयी होगी उस जगह
जहां से कोई आवाज नहीं आती...
नहीं तो कोई ऐसा क्यों करेगा...? 

मंगलवार, अगस्त 9

कैसी है यह विडंबना


कैसी है यह विडंबना

भीतर इक प्रकाश जगा है
बाहर लेकिन अंधकार है,
जिसका ज्ञान हुआ है भीतर
बाहर दिखता नहीं प्यार है !

एक तत्व से बना जगत यह
फिर भी भेदभाव कर्मों में,
एक ही ज्योति हुई प्रकाशित
फिर भी पृथक हुए धर्मों से !

कथनी करनी का यह अंतर
साल रहा मन को भारी है,
सहज मिटेगा यह अंतर भी
खोज अभी मन की जारी है !

प्रेम किये से पड़े झेलना
स्वयं को भी जीवन का जुआ,
प्रेम मांगता कीमत अपनी
सरल शाब्दिक देना दुआ !

भीतर एक अकर्ता बैठा
लेकिन कर्म से मुक्ति नहीं है,
क्या करना क्या नहीं है करना
इसकी कोई युक्ति नहीं है ?

पर उपदेश कुशल बहुतेरे
सत्य यही सामने आता,
निज सुख की खातिर दूजे को
जब कोई गुलाम बनाता !

उसमें कोई गति नहीं है
अचल अनादि जो अनंत है,
मन में ही घटना-बढ़ना है
लेकिन स्वयं सदा बेअंत है !  
    

रविवार, अगस्त 7

मृणाल ज्योति


प्रिय ब्लोगर मित्रों, मृणाल ज्योति से आप परिचित हैं, यह दुलियाजान, जिला डिब्रूगढ़, असम राज्य में स्थित एक स्वयंसेवी संस्था है जो शारीरिक व मानसिक रूप से बाधित बच्चों को समाज में पुनर्स्थापित करने का कार्य कर रही है. आज इसकी वार्षिक आम सभा थी जिसमें यह कविता मैंने पढ़ी, मैं आप सभी के साथ इसे बांटना चाहती हूँ. जैसा कि आमतौर से इस तरह की संस्थाओं में होता है फंड की जरूरत बढती जाती है, जैसे-जैसे संस्था आगे बढती जाती है. यदि इस तरह की हर संस्था धीरे-धीरे आत्मनिर्भर हो जाये तो इसे दान पर निर्भर नहीं रहना पडेगा. लेकिन इसके लिए भी आरम्भ में समाज की सहायता तो चाहिए ही.  


मृणाल ज्योति

आत्मनिर्भर यह बनेगा, आगे बस आगे बढ़ेगा
मृणाल ज्योति दीप बन कर, हर अँधेरे से लड़ेगा

तन-मन से जो प्रतिबंधित हैं, नव जोश उनमें भरेगा
सृजन करके कुछ नया अब, निज पांव पर खड़ा होगा

अभी कार्य बहुत शेष है, उत्साह लेकिन न घटेगा
स्वच्छता का ध्यान रखके, नए कुछ मानक गढ़ेगा

भवन नूतन इक बना है, थेरेपी का सेंटर बनेगा
सहयोग पा समाज का, नित नए सोपान चढ़ेगा

शिक्षकों की अथक सेवा, कर्मचारी गण समर्पित
दिल में सबके एक लक्ष्य, कार्य करते रात-दिन

राखियां रंगीन सुंदर, प्रेम का संदेश देतीं
दीपकों के रंग मनहर, जगत में भरते हैं ज्योति

स्वप्न देखे है सदा यह, समतल पूरा मैदान बनेगा
बरस के थक जाएँ बादल, नहीं इसमें जल भरेगा

नर्सरी भी एक सुंदर, बाग फूलों का खिलेगा
निज नए उद्योग पनपें, कोष इससे भी बढ़ेगा

शिक्षा के साधन नवीन पा, नई विधियों पर चलेगा
हस्त कौशल भी सिखाकर, सक्षम छात्रों को करेगा

व्यवसाय नये खोल, रोजगार औरों को देगा
मृणाल ज्योति अगले बरस में, नए कीर्तिमान रचेगा

आपका सहयोग चाहे, आपसे ही यह कहेगा
आप मित्रों पर है श्रद्धा, आप से ही स्नेह मिलेगा