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रविवार, अप्रैल 20

घर इक मंज़िल

घर इक मंज़िल 

 इन वक्तों का यही तक़ाज़ा

 रहे ह्रदय का ख़्वाब अधूरा, 


बनी रहे मिलने की ख्वाहिश 

जज़्बा क़ायम कुछ पाने का !


है स्वयं पूर्ण, जगत अधूरा

मिथ्या स्वप्न, सत्य है पूरा, 

 

 क्षितिज कभी हाथों ना आता

चलता राही थक सो जाता !


 फूलों के दर्शन हो सकते

मंज़िल कहाँ मिलेगी मग में, 


लौट जरा अपने घर आना 

वहीं मिलेगा सरस ठिकाना !


सोमवार, जनवरी 8

बूँद एक घर से निकली थी

बूँद एक घर से निकली थी 


अंधकार में ठोकर खाते 

आँखें बंद किए चलते हैं, 

जाने कौन  मोह में फँस कर 

अक्सर ख़ुद को ही छलते हैं !


छोटी-छोटी इच्छाओं के 

बोझे तले व्यर्थ दबते हैं, 

सिर पर गठ्ठर लादे, जाने

कब से बीहड़ पथ चलते हैं !


अनजाने ही रह जाते वह 

अपने दिल की गहराई से, 

जीवन की संध्या आ जाती 

कान भरे हैं शहनाई से !


सागर से मिल सकती थी जो 

मरुथल में दम तोड़ रही है, 

बूँद एक घर से निकली थी 

जाने क्या वह जोड़ रही है ! 


अपनी ही ऊँचाई से बच 

बौना होता जाता मानव, 

पहचाने जाते थे पहले 

अब सबके भीतर ही दानव ! 


दुख की ठोकर जब भी लगती 

जाग देखता है सोया मन, 

पीड़ा ही पथ पर रखती है 

सुख में तो भटका है जीवन !


पर्वत जैसा दुख भी आये 

सागर सुख का ठाँठे मारे, 

आँख मूँद कर चलते पथ में 

ज्योति निरंतर जलती द्वारे ! 


सोमवार, अगस्त 21

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः

धरती हमें धरती है 

माँ की तरह 

पोषित करती है 

फल-फूल, अन्न,  शाक से 

क्षुधा हरती है 

वे पात्र जिनमें ग्रहण किया भोजन 

वे घर जो सुरक्षा दे रहे 

वे वस्त्र जो बचाते हैं 

सजाते हैं ग्रीष्म, शीत, वर्षा से 

सभी तो धरती माँ ने दिये 

अनेक जीवों, प्राणियों का आश्रय धरा 

उसने कौन सा दुख नहीं हरा 

अंतरिक्ष की उड़ान के लिए मानव ने 

ईंधन कहाँ से पाया 

आलीशान पोत बनाये 

समान कहाँ से आया 

धरा से लिया है सदा हमने 

कृतज्ञ होकर पुकारा है कभी माँ ! 

विशाल है धरा 

जलाशयों, सागरों 

और पर्वतों का आश्रय स्थल 

भीतर ज्वाला की लपटें 

तन पर हिमाच्छादित शिखर 

रेतीले मैदान और ऊँचे पठार 

वह सभी कुछ धारती है 

निरंतर घूमती हुई 

अपनी धुरी पर 

सूर्य की परिक्रमा करती है 

हरेक का जीवन संवारती है 

उसका दिल इतना कोमल है कि 

एक पुकार पर पसीज जाता है 

धरती को अपना नहीं अपने बच्चों का 

ख़्याल घुमाता है !


गुरुवार, सितंबर 22

अंतहीन उसका है आंगन


अंतहीन उसका है आंगन 

मौन से इक उत्सव उपजता 
नई धुनों का सृजन हो रहा,
मन में प्रीत पुष्प जन्मा है  
सन्नाटे से गीत उठ रहा !

उस असीम से नेह लगा तो
सहज प्रेम जग हेतु जगा है,
अंतहीन उसका है आंगन  
भीतर का आकाश सजा है !

बिन ताल एक कमल खिला है  
हंसा लहर-लहर जा खेले,
बिन सूरज उजियाला होता  
अंतर का जब दीप जला ले !

शून्य गगन में हृदय डोलता
मधुमय अनहद नित राग सुने,
अमिय बरसता भरता जाता   
अंतर घट को जो रिक्त करे !

घर में ही जब ढूँढा उसको
वहीं कहीं छुप कर बैठा था
नजर उठा के देखा भर था
हुआ मस्त जो मन रूठा था !

आदि, अंत से रहित हो रहा
आठ पहर है सुधा सरसती,
दूर हुई जब दौड़ जगत की  
निकट लगी नित कृपा बरसती !

शनिवार, सितंबर 4

नींद

नींद 


हर रात हम अपने घर जाते हैं 

अनजाने ही 

और भोर में पोषित होकर लौटते हैं 

जाहिर है घर पर कोई है 

यदि रात सो न सका कोई

तो वह घर का पता ही भूल गया है 

या भटक गया है आधी रात को 

अथवा घर से दूर निकल गया है 

जाना चाहता है 

पर कोई वाहन नहीं मिलता 

भय और थकान भी उसे घेर लेते हैं 

नींद न आने पर अगले दिन 

लोग कैसे खोये-खोये से रहते हैं !


बुधवार, फ़रवरी 3

अब भी उस का दर खुला है

अब भी उस का दर खुला है 


खो दिया आराम जी का 

खो दिया है चैन दिल का,

दूर आके जिंदगी से 

खो दिया हर सबब कब का !


गुम हुआ घर का पता ज्यों

भीड़ ही अब नजर आती,

टूटकर बैठा सड़क पर 

घर की भी न याद आती !


रास्तों पर कब किसी के 

फैसले किस्मत के होते, 

कुछ फ़िकर हो कायदों की 

हल तभी कुछ हाथ आते !


दूर आके अब भटकता 

ना कहीं विश्राम पाता, 

धनक बदली ताल बदली 

हर घड़ी सुर भी बदलता !


अब भी उस का दर खुला है 

जहाँ हर क्षण दीप जलते, 

अब भी संभले यदि कोई 

रास्ते कितने निकलते !

 

गुरुवार, अगस्त 13

फिर कोरोना देव अवतरित

 फिर कोरोना देव अवतरित 

 

पीला पात डाल से बिछड़ा 

संग पवन के डोले  इत उत,

हम भी बिछुड़े अपने घर से 

पता खोजते गली-गली में !

 

कोई कहता काशी जाना 

काबा की भी राह दिखाता,

गंगा तट पर शिव के डेरे  

कोई महामंत्र ही फेरे !

 

द्वारे -द्वारे भटक रहे थे 

 हुए बंद मंदिर व शिवालय, 

फिर कोरोना देव अवतरित 

बैठे हैं सब घर में कंपित !

 

घर से बिछुड़े घर लौटे हैं 

प्रेम का पाठ सिखायेगा, 

इसकी दीवारों को सजा लें 

घर को ही अब स्वर्ग बना लें !


मंगलवार, जुलाई 28

घर-बाहर

घर-बाहर 

तुम्हारे भीतर जो भी शुभ है 
वह तुम हो 
और जो भी अनचाहा है 
मार्ग की धूल है 
सफर लंबा है 
चलते-चलते लग गए हैं 
कंटक  भी कुछ वस्त्रों पर 
 मटमैले से हो गए हैं 
पर वे सब बाहर-बाहर हैं 
धुल जायेंगे 
एक बार जब पहुंचे जाओगे घर !

मार्ग में दलदल भी थे लोभ के 
थोड़ा सा कीचड़ लगा है पैरों पर 
गुजरना पड़ा होगा कभी जंगल की आग से भी 
धुआँ और कालिख चिपक गयी होगी 
कभी राग के फल चखे होंगे 
मधुर जिनका रस-रंग भी टपक गया है 
कभी द्वेष की आंच में तपा होगा उर 
सब कुछ बाहर ही उतार देना 
घर में प्रवेश करने से पूर्व !

घर में शीतल जल है 
प्रक्षालन के लिए
तुम्हारा जो भी शुभ है स्वच्छ है 
नजर आएगा तभी 
मिट जाएगी सफर की थकान 
और पाओगे सहज विश्राम 
घर बुलाता है सभी को 
पर जो छोड़ नहीं पाते मोह रस्तों का 
भटकते रहते हैं 
अपने ही शुभ से अपरिचित 
 वे कुछ खोजते रहते हैं !

गुरुवार, अप्रैल 23

घर पर ही रहें

घर पर ही रहें


जिंदगी गणित के सूत्रों से नहीं चलती 
एक छोटा सा वायरस 
जो छुपा है एक आदमी में 
अनेक आदमियों में फैल सकता है 
एक वायरस... 
सारे गणित को फेल कर रहा है 
जो ग्रस लेता है 
पूरे परिवार को देखते-देखते 
वायरस ने आपको छुआ है या आपने उसे 
पता भी नहीं चलने देता 
आप मुस्कुराते-मुस्कुराते मिल लेते हैं चंद लोगों से 
या रख देते हैं अपना रुमाल मेज पर 
जो बन चुका है जैविक हथियार 
अनजाने में जो भी उठाएगा 
वह भी धोखे में आ जायेगा 
एक दिन आपका माथा तपता है 
आप अस्पताल चले जाते हैं 
वहां भी यदि नही रहे सचेत तो
सरक जाते हैं कुछ वायरस स्वास्थ्य कर्मी या नर्स पर 
... या कभी डॉक्टर पर 
अनजाने में आप बन चुके हैं वाहक 
भगवान न करे कभी ऐसा घटे  
इसीलिए घर पर ही रहें  ! 

शुक्रवार, अप्रैल 3

देर है वहां अंधेर नहीं

देर है वहां अंधेर नहीं 


देर है वहां अंधेर नहीं 
तभी पुकार सुनी धरती की 
सूक्ष्म रूप में भू पर आके 
व्यवस्था काल लगा है लाने 
कामना और आवश्यकता का अंतर समझाने 
बेघरों को आश्रय दिलवाने 
बच्चों और बुजुर्गों को उनका समय दिलाने 
वरना आज का युवा सुबह से निकला रात को घर आया 
मनोरंजन के साधन खोजे, भोजन भी बाहर से मंगवाया 
परिवार में साथ रहकर भी सब साथ कहाँ थे 
सब कुछ था, पर ‘समय’ नहीं था 
न अपने लिए न अपनों के लिए 
घर चलते थे सेवक-सेविकाओं के सहारे 
भूल ही गए थे घर में भी होते हैं चौबारे 
सुबह की पूजा, दोपहर का ध्यान, शाम की संध्या 
तीनों आज प्रसन्न हैं 
जलता है घर में दीया, योग-प्राणायाम का बढ़ा चलन है 
हल्दी, तुलसी, अदरक का व्यवहार बढ़ा है 
स्वच्छता का मापदंड भी ऊपर चढ़ा है 
शौच, संतोष, स्वाध्याय... अपने आप 
यम-नियम सधने लगे हैं 
भारत की पुण्य भूमि में अपनी संस्कृति की ओर
लौटने के आसार बढ़ने लगे हैं 
‘तप’ ही यहां का मूल आधार है 
ब्रह्मा ने तप कर ही सृष्टि का निर्माण किया 
शिव ने हजारों वर्षों तक ध्यान किया 
कोरोना को भगाने के लिए हमें तपना होगा 
 जीवन के हर क्षण को सद्कर्मों से भरना होगा ! 

बुधवार, मार्च 25

कुदरत यही सिखाने आयी

कुदरत यही सिखाने आयी 


घर में रहना भूल गया है 
बाहर-बाहर तकता है मन, 
अंतर्मुख हो रहे भी कैसे ?
नहीं नाम का सीखा सुमिरन !
  
घर में रहने को नहीं उन्मुख 
शक्ति का जहाँ स्रोत छुपा है,
आराधन कर उस चिन्मय का 
जिसमें तन यह मृण्मय बसा है !

कुदरत यही सिखाने आयी 
कुछ पल रुक कर विश्राम करो,
दिन भर दौड़े-भागे फिरते 
अब दुनिया से उपराम रहो !

हवा शुद्ध होगी परिसर की 
धुँआ छोड़ते वाहन ठहरे,
पंछी अब निर्द्वन्द्व उड़ेंगे 
आवाजों के लगे न पहरे !

धाराएँ भी निर्मल होंगी 
दूषित पानी नहीं बहेगा,
श्रमिकों को विश्राम मिलेगा 
उत्पादन यदि अल्प घटेगा !



बुधवार, मई 29

उसको खबर सभी की



उसको खबर सभी की

खोया नहीं है कोई भटका नहीं है राह
अपने ही घर में बैठा बस घूमने की चाह

जो दूर से भी दूर और पास से भी पास
ऐसा कोई अनोखा करता है दिल में वास

उसको खबर सभी की जागे वह हर घड़ी
कोई रहे या जाये बाँधे नहीं कड़ी

इक राज आसमां सा खुलता ही जा रहा
वह खुद ही बना छलिया खुद को सता रहा

नजरों से जो बिखरता उसका ही नूर है
कहता दीवाना दिल वह कितना दूर है

कोई फूल फूल जाकर मधुरस बटोरता है
मीठी सी इक डली बन वह राह जोहता है

बुधवार, जुलाई 4

राज खुलता जिंदगी का




राज खुलता जिंदगी का


एक उत्सव जिन्दगी का
चल रहा है युग-युगों से,
एक सपना बन्दगी का
पल रहा है युग युगों से !

घट रहा हर पल नया कुछ
किंतु कण भर भी न बदला,
खोजता मन जिस हँसी को
उसने न घर द्वार बदला !

झाँक लेते उर गुहा में
सौंप कर हर इक तमन्ना,
झलक मिलती एक बिसरी
राज खुलता जिंदगी का !

मिट गये वल्लि के पुतले
चंद श्वासों की कहानी,
किंतु जग अब भी वही है
है अमिट यह जिंदगानी !