पड़ोस में एक बच्चे के रोने की आवाज अक्सर आती है जो मुझे बेचैन कर जाती है, कोई उसे डांटता है पर पुचकारता नहीं...
जबकि भीतर बहते धारे
प्रेम नहीं सौदा करते हैं
झूठ ही प्रेम का दम भरते हैं,
जिन पर हम अधिकार जताते
मन ही मन हमसे डरते हैं !
अभी हैं कोमल, अभी आश्रित
एक दिन तो मजबूत बनेंगे,
बात हमारे हाथ में अब तो
कल जाने वह कहाँ खिलेंगे !
धैर्य का इक बिरवा रोपें
मन धरती में कुसुम छिपे हैं,
छिपाए हीरा हर इक भीतर
कंकर क्यों फिर हमीं बिने हैं !
है मिठास का एक भंडार
कृपण हुए मृदु बोल न बोलें,
बाँट-बाँट भी ना हो खाली
फिर भी दिल की गांठ न खोलें !
नदिया की नदिया भीतर है
हम कैसे सागर हैं खारे,
अपनों को भी वंचित रखते
जबकि भीतर बहते धारे !
माटी का तन माटी होगा
प्रेम अमर कर सकता है मन,
बादल बन कर बरस रहा वह
पर सूखे ही रह जाते हम !
अथ--
जवाब देंहटाएंसुन्दर
प्रस्तुति |
बधाई,
इति ||
बहुत सुन्दरता से पिरोये शब्द ||
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई |
माटी का तन माटी होगा
जवाब देंहटाएंप्रेम अमर कर सकता है मन,
बादल बन कर बरस रहा वह
पर सूखे ही रह जाते हम ! अच्छी रचना....
नदिया की नदिया भीतर है
जवाब देंहटाएंहम कैसे सागर हैं खारे,
अपनों को भी वंचित रखते
जबकि भीतर बहते धारे !
माटी का तन माटी होगा
प्रेम अमर कर सकता है मन,
बादल बन कर बरस रहा वह
पर सूखे ही रह जाते हम !
मन तो कर रहा है की पूरी कविता ही उद्धृत कर दूँ यहाँ.
आपकी रचना हमेशा कुछ सिखाती है मुझे.
Thank you.
बहुत सही लिखा है आपने |दुर्भाग्य हमारा कि हम प्यासे ही रह जाते हैं..प्रेम अमर नहीं हो पाता.
जवाब देंहटाएंसच है दुनिया में सबसे ज्यादा ज़ुल्म मासूम बच्चों पर ही होते हैं क्योंकि वो विरोध नहीं जाता पाते.......पर एक दिन आता है जब वो हर ज़ुल्म का बदला ले लेते हैं ...........सुन्दर पोस्ट|
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