कविता झुलस रही है 
कविता झुलस रही है उस आग
में 
लगा रहा है जो कोई सिरफिरा 
अनगिनत स्वप्न और निशान नन्हे
कदमों के 
 दफन हो गये जिसकी राख में
उन कक्षाओं की चहकती आवाजें
खो गयीं जैसे बियाबान में
स्कूल की घंटी से बढ़ 
क्या हो सकता है कोई गीत किसी
बच्चे के लिए
जिसमें गाता है उसका भविष्य
सारी समझ आदमी ने 
गिरवी रख दी है जैसे 
जो जमीन के एक टुकड़े की
खातिर 
मार रहा है इंसानियत की
जागीर 
कितना कठिन है वक्त का दौर 
जब मर रहे हैं लोग 
और दिखाई जाती है उनकी
तस्वीर ! 

जीवन ही झुलसा जा रहा है -कविता कहाँ बचे पायेगी !
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने..प्रतिभाजी.
जवाब देंहटाएंयही कड़वा सच है
जवाब देंहटाएंजो जमीन के एक टुकड़े की खातिर
जवाब देंहटाएंमार रहा है इंसानियत की जागीर
.....यही हाल हो रहा है तभी तो कविता झुलस रही है
ओंकार जी व संजय जी, सही कहा है आपने, आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब प्रतिभा जी
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